सोमवार, 31 दिसंबर 2018

 इस देश की निचली अदालतों में 140 मुकदमे 60 साल से अधिक समय से लंबित हैं।आज के टाइम्स आॅफ इंडिया की यह लीड खबर है।
नेशनल जूडिशियल डाटा ग्रिड के रिकाॅर्ड के अनुसार हजारों मुकदमे 40-50 साल से पेंडिंग हैं।
  वैसे गत जुलाई तक के आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 3 करोड़ 30 लाख मुकदमे विभिन्न अदालतों में लंबित हैं।
 यह आंकड़ा देख कर अस्सी के दशक की एक बात याद आ गयी।
  तब मैं दैनिक ‘आज’ अखबार में काम करता था।
न्यूयार्क टाइम्स के नई दिल्ली ब्यूरो चीफ माइकल टी.काॅफमैन पटना आए थे।
उनसे मेरी लंबी बातचीत हुई थी।मैंने उनसे पूछा कि अमेरिका के लोग हिन्दुस्तान के बारे में क्या सोचते हैं ?
उन्होंने कहा कि कुछ नहीं सोचते।सोचने की फुर्सत कहां ?
मैंने जिद की।कुछ लोग तो एशिया के इस इलाके के विशेषज्ञ
होंगे।
शायद वे कुछ सोचते होंगे,कुछ विचार रखते होंगे !
उन्होंने कहा कि हां,सोचते हैं,पर मैं नहीं बताऊंगा।आपको बुरा लगेगा।
मैंने कहा कि मुझे तनिक बुरा नहीं लगेगा।
काॅफमैन ने कहा कि यह सोचते हैं कि भारत के एक तिहाई लोग कचहरियों में रहते हैं।अन्य एक तिहाई अस्पतालों में रहते हैंं।बाकी एक तिहाई मनमौजी हैं।
@मैं उन दिनों और भी दुबला-पतला था।@
आप मेरे देश में होते तो हम पहला काम यही करते कि नजदीक के किसी अस्पताल में आपको भर्ती करा देते ।
  माइकल का 2010 में निधन हो गया।यदि आज होते तो भी यही बात कहते।
 दरअसल हमारे अधिकतर हुक्मरानों को ऐसी मूल समस्याओं की जगह दूसरी ही बातों से मतलब रहता है।


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