शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

राजमाता सिंधिया ने 1967 में उलट दी थी मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री की कुर्सी



         
ज्योतिरादित्य सिंधिया तो इस बार मुख्य मंत्री नहीं बन सके,पर उनकी दादी राजमाता सिंधिया ने सन 1967 में  कांग्रेसी मुख्य द्वारिका प्रसाद मिश्र की कुर्सी उलट दी थी ।
  एक सभा में राज घरानों के खिलाफ मुख्य मंत्री मिश्र की अमर्यादित टिप्पणी से कांग्रेसी सांसद विजया राजे सिंधिया सख्त नाराज थीं।
 डी.पी.मिश्र के बाद मुख्य मंत्री बने गोविंद नारायण सिंह मिश्र मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किए जाने से नाराज थे।
 1967 के आम चुनाव के बाद तो राजनीति के ‘चाणक्य’माने जाने वाले  मिश्र के नेतृत्व में मध्य प्रदेश में कांग्रेसी सरकार तो बन गयी,पर वह सिर्फ चार महीने ही चल सकी। 8 मार्च, 1967 से 29 जुलाई 1967 तक ही।
ऐसे मुख्य मंत्री को राजमाता ने उलट दिया जिन्होंने एक ही साल पहले इंदिरा गांधी को प्रधान मंत्री बनाने में ‘चाणक्य’ की भूमिका निभाई थी।
हालांकि डी.पी.मिश्र बाद के वर्षों में जवाहर लाल नेहरू के विरोधी हो गए  थे।
मिश्र जी की शिकायत थी कि तिब्बत को हड़प लेने पर   नेहरू ने चीन का विरोध नहीं किया।
 एक बार तो मिश्र ने यह भी कहा दिया था कि मैं 1962 में जवाहर लाल नेहरू को प्रधान मंत्री नहीं बनने दूंगा।
हालांकि वे उस ‘पहाड’़ को नहीं हिला सके थे।
1967 के चुनाव के बाद उपजे  तरह-तरह के असंतोष के कारण मध्य प्रदेश विधान सभा के कुल 167 कांग्रेसी विधायकों मेें से 36 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी।हालांकि उस दल बदल के सिलसिले में भी कई नाटकीय घटनाएं भी हुर्इं जिसकी एक पात्र राजमाता थीं।
  कहा जाता है कि यदि उनके पास गैर राजनीतिक  ताकत नहीं होती तो दलबदलू विधायकों का सत्ता ने अपहरण कर लिया होता।
तब की एक पत्रिका के अनुसार, 1963 में द्वारिका प्रसाद मिश्र के मुख्य मंत्री होने पर भोपाल के समाचार पत्रोें के दफ्तरों में 
राज्य के विभिन्न कोनों से अनेक पत्र आये  थे जिन में लौह पुरूष श्री मिश्र को अवतार और देवता मान कर उनके दर्शन की लालसा व्यक्त की गयी थी।
मिश्र के मुख्य मंत्री बनने के बाद चार- छह महीने तक खूबसूरत जाल अपनी ओर लोगों को आकर्षित किए रहा।
लेकिन वास्तविकता जैसे -जैसे सामने आती गयी ,जनता का मोह टूटता गया।बाद के दिनों में उसके सामने सिर्फ मिश्र मंत्रिमंडल की तानाशाही और नौकरशाही रही।अंततः असंतोष का विस्फोट हुआ।’
 मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में 30 जुलाई 1967 को 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल गठित हुआ।उस प्रथम गैर कांग्रेसी मंत्रिमंडल में उन 36 दलबदलू  कांग्रेसी विधायकों में से 19 दल बदलू शामिल किए गए।जनसंघ घटक से 7 मंत्री बने।
राजमाता की पार्टी जन क्रांति दल से पांच मंत्री बने।
जनसंघ घटक के वीरेंद्र कुमार सकलेचा उप मुख्य मंत्री बनाए गए। 
हालांकि गोविंद नारायण सिंह की सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी।
कहा गया कि राजमाता की ओर से शासन में  लगातार हस्तक्षेप को अंततः गोविंद नारायण सिंह सहन नहीं कर सके।वे सन 1969 के मार्च में पद से हट गए।फिर कांग्रेस में शामिल हो गए।
राजीव गांधी के शासन काल में उन्हें  बिहार का  राज्यपाल बनाया गया था।पर उनका मुख्य मंत्री से लगातार टकराव चलता रहा।
उन दिनों  एक दलबदलू का तर्क था कि विंस्टन चर्चिल ने भी मतभेदों के कारण 1904 में दल बदल किया था।पहले वे कंजर्वेटिव पार्टी से चुने गए ।फिर लिबरल पार्टी में शामिल हो गए थे।
सन 1967 के आम चुनाव में  देश में कांग्रेस विरोधी हवा थी।
सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी।
लोक सभा में भी उसका बहुमत पहले की अपेक्षा कम हो गया।कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी दल बदल के कारण कांग्रेस सरकारें गिर गयीं।
उत्तर प्रदेश में किसान नेता चरण सिंह ने अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़ कर चंद्रभानु गुप्त की कांग्रेसी सरकार गिराई।चरण सिंह खुद मुख्य मंत्री बने। मध्य प्रदेश में कांग्रेसी सरकार गिराने में सिंधिया घराने ने मुख्य भूमिका निभाई।पर मुख्य मंत्री कोई और बना।गोविंद नारायण सिंह के पिता अवधेश प्रताप सिंह विंध्य प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री रह चुके थे।
 विजया राजे सिंधिया के पति जीवाजी राव सिंधिया मध्य भारत के राज प्रमुख थे।
पर जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो मध्य भारत मध्य प्रदेश का हिस्सा बन गया।
 मध्य प्रदेश में कांग्रेसी सरकार के अपदस्थ होने के बाद श्यामा प्रसाद शुक्ल और अर्जुन सिंह दिल्ली गए।हाईकमान के सदस्यों से अलग -अलग  मिले।
दोनों मिश्र मंत्रिमंडल के सदस्य थे।अर्जुन सिंह ने हाईकमान से  कहा कि डी.पी.मिश्र अब भी मध्य प्रदेश के बेताज बादशाह हैं।उन्हें ही आगे भी मौका मिलना चाहिए।पर श्यामा चरण शुक्ल नए नेतृत्व के पक्ष में थे।सन 1969 में श्यामा चरण शुक्ल मुख्य मंत्री बनाए गए।--सुरेंद्र किशोर 
@मेरा यह लेख फस्र्टपोस्ट हिन्दी में प्रकाशित@

   

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