सोमवार, 17 दिसंबर 2018

मित्रों को समर्पित 
---------
कभी आ भी जाना
बस वैसे ही जैसे 
परिंदे आते हैं आंगन में
या अचानक आ जाता है
कोई झोंका ठंडी हवा का
जैसे कभी आती है सुगंध
पड़ोसी की रसोई से.......

आना जैसे बच्चा आ जाता 
है बगीचे में गेंद लेने
या आती है गिलहरी पूरे
हक से मुंडेर पर...
जब आओ तो दरवाजे 
पर घंटी मत बजाना
पुकारना मुझे नाम लेकर
मुझसे समय लेकर भी मत आना
हां, अपना समय साथ लाना
फिर देानों समय को जोड़ के 
बनाएंगे एक झूला...
अतीत और भविष्य के बीच
उस झूले पर जब बतियाएंगे 
तो शब्द वैसे ही उतरेंगे
जैसे कागज पर उतरते हैं
कविता बन कर...

और जब लौटो तो थोड़ा
मुझे ले जाना साथ
थोड़ा खुद को छोड़ जाना
फिर वापस आने के लिए
खुद को एक दूसरे से पाने
 के लिए.....
      ---देवेन्द्र --
-----------------------
अपने मित्रों के लिए ऐसी रचना मैंने पहली बार पढ़ी,इसलिए शेयर कर रहा हूंं।
एक बार बिहार वाणिज्य मंडल के पूर्व अध्यक्ष युगेश्वर पांडेय 
ने मुझसे कहा था कि मुझे सबसे अच्छा तब लगता है जब मेरा कोई सहपाठी अचानक पीछे से पुकारते हुए कहता है, ‘अरे जुगेसर कैसे हो ?’

कोई टिप्पणी नहीं: