सोमवार, 3 दिसंबर 2018

  किसी आरोपी के खिलाफ आरोपों की जांच हो रही होती है तब तक कोई व्यक्ति जांचकत्र्ता पर पक्षपात करने का आरोप लगा सकता है।
कुछ जांचकत्र्ता कई बार पक्षपात करते ही रहते हैं।
पर जब अभियोजन पक्ष अदालत में आरोप पत्र दाखिल कर देता है तब से  स्थिति बदलने लगती है।
अदालत आरोप पत्र को देखती है।आरोप पहली नजर में यदि सही लगा तो अदालत उसे केस में संज्ञान लेती है।
इसके बाद नियमतः सार्वजनिक रूप से आरोप- प्रत्यारोप का दौर बंद हो जाना चाहिए।जिसे जो कहना है,वह अदालत में कहे।
जब अदालत आरोप गठित कर देती है तब तो बयानबाजी बिलकुल ही बंद हो जानी चाहिए।
 पर यदि आरोप राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले के खिलाफ हुआ तो इसके बावजूद सार्वजनिक रूप से आरोप लगते रहते हंै कि हमारे राजनीतिक विरोधियों ने साजिश करके फंसा दिया।कई बार कारण भी बताए जाते हैं।
   इसका मतलब यह होता है कि आरोपकत्र्ता के अनुसार अदालत भी उस साजिश में शामिल है।यदि अदालत किसी आरोपित को सजा दे देती है तौभी आरोप लगता रहता है कि विरोधियों ने साजिश करके फलां नेता को फंसा दिया और सजा दिलवा दिया।
  यानी आरोप कत्र्ता के अनुसार अदालत की भी उस साजिश में सहभागी है।
  ऐसे मौके पर आम तौर पर अदालत चुप रह जाती है।
बयानों को नजरअंदाज कर देती है।इससे आरोपकत्र्ताओं का मनोबल बढ़ता जाता है।
ऐसे आरोप लगाने  वालों में लगभग हर दल के नेता होते है।
जिस पर भी केस होता है,अपवादों को छोड़कर आरोप लगा ही देता है।
  ऐसे आरापों से अदालत की इज्जत कम होती है।अदालतों को चाहिए कि वह अपनी इज्जत कायम रखने के लिए अपने अधिकारों का उपयोग करे।
   आरोप लगाने वालों को अदालत में बुलाकर पूछे कि यदि साजिश के तहत हमने सजा दी है तो उसे साबित करो।
यदि साबित नहीं कर सकते हो तो अदालत की मानहानि के आरोप में हम तुम्हें सजा देंगे।
ऐसे मामले में यदि अदालतें तौल कर सजा देने लगे तो आगे किसी नेता को अदालत पर साजिश में शामिल होने का आरोप लगाने की हिम्मत नहीं होगी।
पर इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां अदालतें ऐसे मामलों को हल्के में लेती है।आम तौर पर चेतावनी देकर छोड़ देती है।
इससे ऐसे आरोपों का दौर नहीं रुकता।
 इससे न्यायपालिका कमजोर होती है,उसके साथ कानून का शासन और लोकतंत्र भी।    

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