शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

--माफिया के मानवाधिकार की चिंता--सुरेंद्र किशोर--

    
कुख्यात माफिया सोहराबुद्दीन शेख की मौत का 13 साल पुराना मामला एक बार फिर सतह पर आया।
सी.बी.आई अदालत ने जैसे ही आरोपी बनाए गए लोगों को सबूतों के अभाव में बरी करने का निर्णय किया,विपक्षी नेता भाजपा और मोदी सरकार पर हमलावर हो गए।
आखिर इस माफिया की मौत का विवादास्पद मामला बार -बार उठाने से विरोधी दलों और नेताओं को आखिर क्या हासिल होता है ?
सवाल यह भी है कि यह मामला उठा कर प्रतिपक्ष किसका भला करना चाहता है ? 
अपना, देश का या उल्टे भाजपा का ?
राजनीतिक घटनाएं तो यही बताती हंै कि 
 इससे अंततः भाजपा का ही भला होता है।
  यह जानना जरूरी है कि सोहराबुद्दीन शेख कौन था ?
इससे यह पता चल जाएगा कि उसके पक्ष में आवाज उठाने वाले कैसे लोग हैं।
सोहराबुद्दीन गुजरात के सबसे बड़े माफिया लतीफ का ड्रायवर था।लतीफ गुजरात में वही काम करता था जो काम महाराष्ट्र में दाऊद इब्राहिम करता था।
पहले लतीफ दाऊद का ही निकट सहयोगी था।
1993 में मुम्बई बम विस्फोट कांड में लतीफ और सोहराबुद्दीन दाऊद के सहयोगी थे।
पुलिस के अनुसार इनके लश्कर ए तोइबा से भी संबंध थे।
बाद में लतीफ और दाऊद के बीच झगड़ा हो गया।
एक बार गुजरात में जब लतीफ और दाऊद गैंग में झड़प हुई तो लतीफ गैंग भारी पड़ गया।
लतीफ ने दाऊद गैंग को भगा दिया।
इसके बाद लतीफ का गुजरात में उत्पात और भी बढ़ गया।
1997 में गुजरात पुलिस ने लतीफ को मुठभेड़ में मार दिया।
तब भी यह आरोप उछला कि मुठभेड़ नकली थी।अहमदाबाद पुलिस ने तब यह कहा था कि पुलिस की गिरफ्त से भागने के क्रम में वह मारा गया।
 जब लतीफ को मुठभेड़ में मारा गया, तब गुजरात में कांग्रेस समर्थित राष्ट्रीय जनता पार्टी की सरकार थी।@शंकर सिंह बघेला राजपा के नेता थे।@ 
दिलीप पारीख मुख्य मंत्री थे।  
नकली मुठभेड़ का आरोप लगाने से किसी राजनीतिक दल को कोई लाभ मिलनेवाला नहीं था,इसलिए उस समय किसी ने तुल नहीं दिया।
तब की गुजरात सरकार ने उन पुलिस अफसरों को सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जिन्होंने लतीफ को असली या नकली मुठभेड़ में मारा था।
  पर जब नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में 2005 में सोहराबुद्दीन मारा गया तोे देश भर में हंगामा खड़ा हो गया।
मुठभेड़ के समय गुजरात के गृह राज्य मंत्री रहे अमित शाह जेल भेजे गए।मामले की सुनवाई मुम्बई में होने लगी। कई बड़े पुलिस अफसर भी जेल भेजे गए।लेकिन गुजरात और राजस्थान में इस केस को लेकर भाजपा को कोई चुनावी नुकसान नहीं हुआ।
क्योंकि इन राज्यों के व्यापारी और अन्य लोग जानते थे कि सोहराबुददीन कैसा था और कौन सा धंधा करता था।
यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि सोहराबुद्दीन की नकली मुठभेड़ में मौत हुई तो उसे देखने के लिए जांचकत्र्ता और अदालतें हैं।
उन्हें अपना काम करने देना चाहिए।
इस प्रकरण में यह सवाल अधिक गहरा है कि आखिर जिस पर देशद्रोह और माफियागिरी का आरोप था, उसका मामला बार -बार उठाने और उसे राजनीतिक मसला बनाने का आखिर क्या मतलब  है ?
उन अल्पसंख्यकों की नकली मुठभेड़ में मौत का मामला वे लोग क्यों नहीं उठाते जो माफिया नहीं थे  ?
 दरअसल सोहराबुद्दीन की मौत पर आंसू बहाने वाले नेता यह उम्मीद करते हैं कि उससे उनका वोट बैंक मजबूत होगा।पर क्या ऐसा हो रहा है ?
कत्तई नहीं, बल्कि उल्टा ही हो रहा है क्योंकि जनता सब जानती है।
यदि हिरासत में अमानवीय ढंग से सताने का मामला ही लिया जाए तो प्रज्ञा सिंह ठाकुर का माामला पुलिस की क्रूरता का एक शर्मनाक नमूना रहा है।प्रज्ञा सिंह को मार -मार कर अशक्त कर दिया गया है।
वह अब व्हील चेयर पर हैं।पर उन पर किसी मानवाधिकारवादी को दया नहीं आ रही है।
प्रज्ञा सिंह पर जो आरोप हंै,उसका निर्णय अंततः अदालत करेगी।पर उन्हें मार -मार कर अशक्त बना देना कहां तक उचित है ?
यदि सोहराबुद्दीन मामले में हत्या का आरोप साबित हो जाए तो हत्यारों को समुचित सजा मिलनी ही चाहिए।
पर आखिर उसके गौरव गान से किसको क्या मिलेगा ? अथवा क्या मिल रहा है ?
हैरानी है कि इस मामले में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी तंज कस रहे हैं।  
 निर्दोष अल्पसंख्यकों और  अन्य लोगों को भी पुलिस द्वारा सताए जाने के अनेक मामले समय -समय पर देश भर से आते रहते हैं।पर पता नहीं क्यों उन पर चुप्पी छाई रहती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रपट के अनुसार सन 2000 से 2017 तक  देश भर से नकली मुठभेड़ों की 1782 शिकायतें उसे मिली थीं।
करीब एक दशक पहले  राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग उत्तर प्रदेश को नकली मुठभेड़ के मामले में कुख्यात प्रदेश मानता था।
2004-05 में उस प्रदेश मेें 54 ऐसे मामले घटित हुए । क्या यह विचित्र नहीं है कि इन में से किसी निर्दोष मृतक के मामले को नहीं उठाकर सोहराबुददीन का मामला रह -रह कर उठाया जाता रहा ?
याद रहे कि सोहराबुद्दीन जब मारा गया,उस समय वह वही काम करने लग गया था जो काम पहले लतीफ करता था।लतीफ के सारे हथियार उसके पास आ गए थे।उसके गैंग के लोग भी सोहराबुद्दीन के लिए काम करने लगे थे।
उसने उज्जैन के पास झिरन्या गांव में हथियार छिपा दिए थे।गुप्त सूचना के आधार पर पुलिस ने उस गांव के कुएं से बड़ी संख्या में घातक हथियार बरामद किए थे।
माना जाता है कि ये हथियार 1993 के मुम्बई बम कांड से पहले दाऊद ने बाहर से मंगवाए थे।इन बातों की चर्चा उन पूरे इलाकों में थी जहां सोहराबुद्दीन और लतीफ सक्रिय थे।
गुजरात और दो अन्य राज्यों के मार्बल व्यापारी भी सोहराबुददीन से काफी परेशान रहते थे।
वह उनसे मनमाना हफ्ता वसूलता था।उनके लिए व्यापार करना कठिन हो गया था।
यह देख कर अनेक लोगों को आश्चर्य होता है कि एक ऐसे सोहराबुद्दीन शेख का मामला उठाया जाता रहा जिस पर गंभीर आरोपों को लेकर 50 मुकदमे थे।
इनमें से कुछ की जांच तो केंद्रीय एजेंसियों के जिम्मे थी।
यदि सोहराबुददीन, कौसर बी और प्रजापति की मौत का मामला फिर अदालत में जाता है तो  अदालत को मेरिट के अनुसार इस केस की सुनवाई करने देना चाहिए।
इस मामले को लेकर राजनीति करने का कोई मतलब नहीं।याद रहे कि यदि भले और कमजोर लोगों को पुलिस सताती है तो उनका मामला उठाना ही वास्तविक मानवाधिकार का मामला है।
@ मेरा यह लेख 28 दिसंबर 2018 के दैनिक जागरण में प्रकाशित@


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