डा.राजेंद्र प्रसाद-जन्म दिन पर विशेष
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जवाहर लाल नेहरू ने कहा था,‘राजेंद्र बाबू का और मेरा पैंतालीस बरस का साथ रहा।इस लम्बे अरसे में मैंने उनको बहुत देखा और बहुत कुछ सीखा।एक मामूली हैसियत से वह भारत के सबसे ऊंचे ओहदे पर पहुंचे ।फिर भी उन्होंने अपना तर्ज नहीं बदला।हिंदुस्तानियत उनमें सोलहों आने थी।व्यक्तित्व की महानता के साथ -साथ उनमें सरलता व नम्रता बराबर बनी रही।हम यदि गलती करते थे, तो वह हमें संभालते थे।उनकी मुद्रा और आंखें भुलाई नहीं जा सकतीं क्योंकि उनमें सच्चाई झलकती थी।उनकी काबिलीयत,उनके दिल की सफाई और अपने मुल्क के लिए उनकी मुहब्बत ने उनके लिए हर भारतवासी के दिल में गहरी जगह पैदा कर दी।’
नेहरू का उनकेे जीवनकाल में राजेंद्र बाबू से मतभेद रहा।इसके बावजूद उनके प्रति उनके दिल में उपर्युक्त भाव थे।पर बाद के शासकों ने राजेंद्र बाबू के प्रति नेहरू की इस भावना का मान नहीं रखा।
राजेंद्र बाबू की प्रेरणादायक जीवनी को पढ़ कर कौन पे्ररित नहीं होगा ? यदि उनके बारे में आज की पीढ़ी को अधिक से अधिक बताया गया होता तो आज के कुछ मेधावी छात्र अपने परीक्षकों से यह टिप्पणी हासिल करने की कम से कम कोशिश तो जरूर करते कि ‘एक्जामनी इज बेटर दैन एक्जामानर !’यानी ‘परीक्षार्थी परीक्षक से बेहतर है।’
गिरीश रंजन ने कई दशक पहले मुझे एक संस्मरण सुनाया था।राजेंद्र बाबू के निधन के बाद कलकत्ता के मशहूर निर्माता - निदेशक एक अन्य व्यक्ति के साथ पटना आए।फ्रेजर रोड के एक होटल संभवतः पिंटू में टिके ।
उन्होंने बिहार के एक सत्ताधारी नेता से मुलाकात की।कहा कि हम राजेंद्र बाबू पर डाक्यूमेंटरी बनाना चाहते हैं।आपसे सहयोग की उम्मीद में आए हैं।नेता जी ने कहा कि जब मर ही गए तो अब उन पर क्या कीजिएगा ?
उस निदेशक को सदमा लगा।
वह होटल लौटकर गम में शराब पीने लगे।
खूब पी ली। किसी तरह उन्हें रिक्शे पर लाद कर कलकत्ता वाली गाड़ी में चढ़ाने के लिए पटना जंक्शन पहुंचाया गया था।
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जवाहर लाल नेहरू ने कहा था,‘राजेंद्र बाबू का और मेरा पैंतालीस बरस का साथ रहा।इस लम्बे अरसे में मैंने उनको बहुत देखा और बहुत कुछ सीखा।एक मामूली हैसियत से वह भारत के सबसे ऊंचे ओहदे पर पहुंचे ।फिर भी उन्होंने अपना तर्ज नहीं बदला।हिंदुस्तानियत उनमें सोलहों आने थी।व्यक्तित्व की महानता के साथ -साथ उनमें सरलता व नम्रता बराबर बनी रही।हम यदि गलती करते थे, तो वह हमें संभालते थे।उनकी मुद्रा और आंखें भुलाई नहीं जा सकतीं क्योंकि उनमें सच्चाई झलकती थी।उनकी काबिलीयत,उनके दिल की सफाई और अपने मुल्क के लिए उनकी मुहब्बत ने उनके लिए हर भारतवासी के दिल में गहरी जगह पैदा कर दी।’
नेहरू का उनकेे जीवनकाल में राजेंद्र बाबू से मतभेद रहा।इसके बावजूद उनके प्रति उनके दिल में उपर्युक्त भाव थे।पर बाद के शासकों ने राजेंद्र बाबू के प्रति नेहरू की इस भावना का मान नहीं रखा।
राजेंद्र बाबू की प्रेरणादायक जीवनी को पढ़ कर कौन पे्ररित नहीं होगा ? यदि उनके बारे में आज की पीढ़ी को अधिक से अधिक बताया गया होता तो आज के कुछ मेधावी छात्र अपने परीक्षकों से यह टिप्पणी हासिल करने की कम से कम कोशिश तो जरूर करते कि ‘एक्जामनी इज बेटर दैन एक्जामानर !’यानी ‘परीक्षार्थी परीक्षक से बेहतर है।’
गिरीश रंजन ने कई दशक पहले मुझे एक संस्मरण सुनाया था।राजेंद्र बाबू के निधन के बाद कलकत्ता के मशहूर निर्माता - निदेशक एक अन्य व्यक्ति के साथ पटना आए।फ्रेजर रोड के एक होटल संभवतः पिंटू में टिके ।
उन्होंने बिहार के एक सत्ताधारी नेता से मुलाकात की।कहा कि हम राजेंद्र बाबू पर डाक्यूमेंटरी बनाना चाहते हैं।आपसे सहयोग की उम्मीद में आए हैं।नेता जी ने कहा कि जब मर ही गए तो अब उन पर क्या कीजिएगा ?
उस निदेशक को सदमा लगा।
वह होटल लौटकर गम में शराब पीने लगे।
खूब पी ली। किसी तरह उन्हें रिक्शे पर लाद कर कलकत्ता वाली गाड़ी में चढ़ाने के लिए पटना जंक्शन पहुंचाया गया था।
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