सोमवार, 3 दिसंबर 2018

-राष्ट्रपति जैल सिंह बनाम प्रधान मंत्री राजीव गांधी विवाद भूतो न भविष्यति-



  

अस्सी के दशक में जैसा विवाद राष्ट्रपति जैल सिंह और प्रधान मंत्री राजीव गांधी के बीच हुआ,वैसा पहले कभी नहीं हुआ।
शायद भविष्य में भी संभवतः ऐसा फिर कभी न हो ! 
आजादी के तत्काल बाद हिन्दू कोड बिल को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद और प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू जरूर आमने -सामने थे,पर
वह मामला इतना तीखा नहीं हुआ।
  सन 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद यदि केंद्र में गैर राजग सरकार बन गयी तो क्या होगा ?
यह सवाल पूछा जाने लगा है।राष्ट्रपति और भावी प्रधान मंत्री के बीच कैसा संबंध रहेगा ?
वैसे तो यह काल्पनिक सवाल है।पर,पिछले ऐसे कुछ विवादों व मतभेदों के अनुभव बताते हैं कि हमारा लोकतंत्र ऐसे मामलों को संभालने लायक प्रौढ़ बन चुका है।
  फिर भी 1987 का वह प्रकरण उल्लेखनीय है जब राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने विवादास्पद भारतीय डाकघर संशोधन विधेयक पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था।
उस विधेयक के जरिए केंद्र सरकार नागरिकों की चिट्ठयों को खोलने का अधिकार ले रही थी।  
  हालांकि वह तो एक बहाना था।
सर्वोच्च संवैधानिक पदांे पर बैठे उन दो हस्तियों के बीच विवाद के कई अन्य मुद्दे भी तब जग जाहिर हो गए थे।
  राजनीतिक हलकों में इस अफवाह का बाजार गर्म था कि राष्ट्रपति किसी भी दिन राजीव गांधी की सरकार को बर्खास्त कर वैकल्पिक सरकार को शपथ ग्रहण करवा सकते हैं।
 पर ऐसा न तो होना था और न हुआ।याद रहे कि ज्ञानी जैल सिंह 1982 से 1987 तक राष्ट्रपति थे।राजीव गांधी 1984 से 1989 तक प्रधान मंत्री थे।
 राजीव गांधी सरकार को तब 404 लोक सभा सदस्यांे का  समर्थन हासिल था।हालांकि कुछ विवादास्पद मामलों को लेकर कांग्रेस की स्थिति कमजोर होती जा रही थी।समय के साथ इतनी कमजोर हो गयी कि 1989 में केंद्र की सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकल गयी।
मंडल और मंदिर मुद्दों पर देश इतना गर्माया कि उससे कांग्रेस की ताकत पिघल गयी।उसके बाद कांग्रेस को कभी लोक सभा में अपना बहुमत नहीं आ पाया।राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार  मंदिर व मंडल मुद्दों  को कांग्रेस बेहतर ढंग से हैंडिल कर सकती थी।
 इससे पहले यह कभी नहीं हुआ था कि राष्ट्र के नाम राष्ट्रपति के संदेश को सरकार सेंसर कर दे और विदेश यात्राओं पर राष्ट्रपति के बदले उप राष्ट्रपति को भेजा जाए।
  यह भी नहीं हुआ था कि राष्ट्रपति टी.वी.पर  एकतरफा प्रसारण पर एतराज करंे।
विधेयक पर दस्तखत करने से रोक दंे और सरकार से यह पूछंे कि जजों की नियुक्ति में साफ नीति क्यों नहीं बनाई जा रही है।
 यह सब तब जैल सिंह बनाम राजीव गांधी विवाद के क्रम में हो रहा था।   
 याद रहे कि राष्ट्रपति बनने से पहले जैल सिंह संजय गांधी को अपना ‘रहनुमा’ मानते थे।इंदिरा जी के कहने पर ‘झाड़ू लगाने को भी तैयार’ रहते थे।इंदिरा जी की हत्या के समय वे उत्तरी यमन के  दौरे पर थे।उन्होंने बाद में कहा था  कि मैंने वापसी के समय  
जहाज में ही यह तय कर लिया था  कि राजीव गांधी को शपथ ग्रहण कराऊंगा।क्योंकि मैं नेहरू परिवार का वफादार हूं।
  पर कुछ ही समय के बाद ही दोनों के बीच  ऐसा कुछ हुआ कि संवाददहीनता की स्थिति पैदा हो गयी।
उन दिनों किसी ने  लिखा था कि ‘साउथ ब्लाॅक के उस हिस्से से जहां प्रधान मंत्री का दफ्तर है, राष्ट्रपति भवन महज कुछ सौ गज दूर है।लेकिन दो -ढाई वर्षों से कुछ ऐसा लगता है जैसे राष्ट्रपति भवन भारत में न होकर किसी दूसरे देश में हो।’
  वह  ऐतिहासिक विवाद सिर्फ किसी एक मुद्दे को लेकर नहीं था।
शिकायतें कई थीं।शिकायतें दोनों तरफ से थीं।विवादों के बीच ही जैल सिंह का कार्यकाल 1987 की जुलाई पूरा हो गया।
  जैल सिंह की शिकायत थी कि राय लेना तो दूर नाजुक और महत्वपूर्ण मसले भी प्रधान मंत्री ने राष्ट्रपति से छिपाए ।
प्रधान मंत्री ने अपनी विदेश यात्राओं के नतीजों की जानकारी राष्ट्रपति को नहीं दी।
  मंत्रिमंडल में फेरबदल को लेकर कोई पूर्व विचार -विमर्श नहीं हुआ।सूचना ऐन वक्त पर दी गयी।
राजीव गांधी के करीबी लोगों ने सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया कि जब जैल सिंह गृह मंत्री थे,तभी से पंजाब बेकाबू हुआ।
प्रधान मंत्री के करीबियों ने खुलेआम राष्ट्रपति की आलोचना की,फिर भी राजीव गांधी चुप रहे।
  दूसरी ओर प्रधान मंत्री को भी जैल सिंह से कई शिकायतें थीं।
राष्ट्रपति ने मुख्य चुनाव आयुक्त को बुला कर हरियाणा में  अन्य राज्यों के  साथ ही चुनाव न कराए जाने का कारण पूछा।
आंध्र प्रदेश की राज्यपाल कुमुदबेन जोशी ने अपने दायरे से बाहर जाकर काम किया तो राष्ट्रपति ने उन्हें पत्र लिख कर फटकारा।
यह प्रधान मंत्री को पसंद नहीं आया।
राष्ट्रपति ने लालडेंगा के साथ सरकार के समझौता करने पर अपना नाराजगी जाहिर की।राष्ट्रपति ने सरकार से बाजाप्ता यह पूछ दिया कि मेरे संदेश को सेंसर क्यों किया गया।
एक तरफ केंद्र सरकार यह महसूस कर रही थी कि विपक्षी नेताओं से मेलजोल बढ़ा कर और गैर इंका सरकारों की तारीफों के पुल बांध कर राष्ट्रपति ने सरकार की उलझनें बढ़ा दीं । 
 दूसरी ओर राष्ट्रपति  अब  रबर स्टाम्प बनने को राजी नहीं थे । उन्हें यह भी स्वीकार नहीं था कि एक अनुभवहीन प्रधान मंत्री और उसके मंत्री जब चाहें तब उनका अपमान करें।
@मेरा यह लेख ‘दास्तान ए सियासत’ काॅलम के तहत 3 दिसंबर 2018 के फस्र्टपोस्ट हिन्दी में प्रकाशित@

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