शनिवार, 1 दिसंबर 2018

असली इमरजेंसी और ‘अघोषित इमरजेंसी’ का फर्क

नरेंद्र मोदी विरोधी राजनीतिक व गैर राजनीतिक लोग लगातार कह रहे हैं कि इन दिनों इस देश में ‘अघोषित इमरजेंसी’ है। मैं पहले बता दूं कि लगभग सारी सरकारें कुछ अच्छे काम करती हैं तो कुछ गलतियां भी करती हैं। मनमोहन और मोदी सरकारें भी अपवाद नहीं हैं।

पर चुनाव के समय अधिकतर जनता यदि इस नतीजे पर पहुंचती है कि मौजूदा सरकार के अधिकतर काम गलत ही हैं तो उसे चुनाव में हरा देती है। इससे उलट भी होता है। आम तौर पर यही होता रहा है। 2019 में मोदी सरकार के साथ भी यही लोकतांत्रिक सलूक होगा।

पर इस बीच ‘अघोषित इमरजेंसी’ की चर्चा खूब हो रही है। इससे हमारे जैसे लोगों को बड़ी पीड़ा होती है जिन्होंने इमरजेंसी देखी और झेली है। अब जरा असली इमरजेंसी को याद कर लें। जस्टिस खन्ना के एक सवाल के जवाब में 15 दिसंबर 1975 को एटॉर्नी जनरल नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि आज यदि शासन गैर कानूनी तरीके से किसी की जान भी ले ले तो उस अपराध के खिलाफ अदालत की शरण लेने की सुविधा हासिल नहीं है।

मुख्य न्यायाधीश ए.एन. राय की अध्यक्षता वाले पांच सदस्यीय पीठ ने बहुमत से नीरेन डे की बात को सही माना। सिर्फ जस्टिस खन्ना ने अपनी असहमति प्रकट की। इसे कहते हैं असली इमरजेंसी। उससे पहले इंदिरा सरकार ने कई जजों की वरीयता को दरकिनार करके ए.एन. राय को मुख्य न्यायाधीश बनाया था।

क्या आज ऐसा कोई जजमेंट संभव है? आज के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका देख लीजिए।

दूसरी ओर आज तो ‘अघोषित इमरजेंसी’ में हालत यह है कि  एक खबर के अनुसार हाईकोर्ट ने पी. चिदम्बरम को गिरफ्तारी से सातवीं बार बचा लिया जबकि उनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। संभव है कि यह  विश्व रिकॉर्ड हो।

इतना ही नहीं, कोल ब्लॉक आवंटन मामले में पूर्व कोयला  सचिव एच.सी. गुप्त को तो सजा मिलती जा रही है, पर उनसे कोई सवाल नहीं पूछा जा रहा है जिन्होंने भावी आवंटियों के नाम की पर्चियां भेजीं और जिन्होंने आवंटन का आदेश दिया।

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