सोमवार, 31 दिसंबर 2018

मोदी सरकार ने बड़ी उम्मीद से अक्तूबर, 2017 में 
रोहिणी आयोग का गठन किया था।
रिपोर्ट देने के लिए आयोग को सिर्फ तीन महीने का समय दिया गया था।रपट नहीं आई।
आयोग का कार्यकाल तीन -तीन महीने बढता गया।एक बार तो केंद्र सरकार ने कह दिया था कि अब अवधि विस्तार नहीं होगा।पर हो गया।अब मई में रिपोर्ट आएगी।
ताजा खबर है कि आयोग देशव्यापी सर्वे करेगा।
यानी अब अंतिम रपट आने में वर्षों लग सकते हैं।
 मोदी सरकार चाहती थी कि आयोग की रपट को आधार बना कर 27 प्रतिशत पिछड़ा आरक्षण को तीन हिस्सों में बांट दिया जाए ताकि अति पिछड़ों के वोट राजग के लिए पक्का हो जाए।
 पर लगता है कि आयोग ने ऐसा नहीं होने दिया। 
आयोग केंद्र सरकार ,लोक उपक्रम और केंद्रीय विश्व विद्यालयों में आरक्षण कोटे के तहत बहाल विभिन्न पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व का आंकड़ा जुटा लिया है।उस आधार पर वह अंतरिम रपट दे सकता था।
 अंतरिम रपट के आधार पर केंद्र अपने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल कर सकती थी।
पर लगता है कि अब वह नहीं हो पाएगा।
यदि मोदी सरकार अगले चुनाव के बाद  सत्ता में नहीं लौट पाएगी तो भाजपा के कई नेता उसके लिए  आयोग के काम काज में ढिलाई को जिम्मेदार मान सकते हैं।

 इस देश की निचली अदालतों में 140 मुकदमे 60 साल से अधिक समय से लंबित हैं।आज के टाइम्स आॅफ इंडिया की यह लीड खबर है।
नेशनल जूडिशियल डाटा ग्रिड के रिकाॅर्ड के अनुसार हजारों मुकदमे 40-50 साल से पेंडिंग हैं।
  वैसे गत जुलाई तक के आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 3 करोड़ 30 लाख मुकदमे विभिन्न अदालतों में लंबित हैं।
 यह आंकड़ा देख कर अस्सी के दशक की एक बात याद आ गयी।
  तब मैं दैनिक ‘आज’ अखबार में काम करता था।
न्यूयार्क टाइम्स के नई दिल्ली ब्यूरो चीफ माइकल टी.काॅफमैन पटना आए थे।
उनसे मेरी लंबी बातचीत हुई थी।मैंने उनसे पूछा कि अमेरिका के लोग हिन्दुस्तान के बारे में क्या सोचते हैं ?
उन्होंने कहा कि कुछ नहीं सोचते।सोचने की फुर्सत कहां ?
मैंने जिद की।कुछ लोग तो एशिया के इस इलाके के विशेषज्ञ
होंगे।
शायद वे कुछ सोचते होंगे,कुछ विचार रखते होंगे !
उन्होंने कहा कि हां,सोचते हैं,पर मैं नहीं बताऊंगा।आपको बुरा लगेगा।
मैंने कहा कि मुझे तनिक बुरा नहीं लगेगा।
काॅफमैन ने कहा कि यह सोचते हैं कि भारत के एक तिहाई लोग कचहरियों में रहते हैं।अन्य एक तिहाई अस्पतालों में रहते हैंं।बाकी एक तिहाई मनमौजी हैं।
@मैं उन दिनों और भी दुबला-पतला था।@
आप मेरे देश में होते तो हम पहला काम यही करते कि नजदीक के किसी अस्पताल में आपको भर्ती करा देते ।
  माइकल का 2010 में निधन हो गया।यदि आज होते तो भी यही बात कहते।
 दरअसल हमारे अधिकतर हुक्मरानों को ऐसी मूल समस्याओं की जगह दूसरी ही बातों से मतलब रहता है।


एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने एक पत्रकार मित्र को यह लिख भेजा है,
‘हालांकि हम दोनों समाजवादी पृष्ठभूमि वाले  हैं,पर हमारे पुराने मित्र नाराज या नाखुश होते हैं जब हम मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की बीच -बीच में प्रशंसा अथवा समर्थन करते हैं।
उनको मेरा एक ही जवाब होता है कि हम यह सिर्फ मेरिट के आधार पर करते हैं।अगर सरकार कुछ अच्छा करती है तो कुछ प्रशंसा और गलत फैसलों की आलोचना भी करते हैं।आप भी मुझसे इस पर सहमत होंगे।’
  यह पढ़कर मुझे राजेंद्र माथुर की याद आ गयी।
उन्होंने मुझसे 1983 में कहा था कि ‘आप इंदिरा गांधी के खिलाफ जितनी भी कड़ी खबर लाइए,मैं उसे छापूंगा।पर इंदिरा जी में कई अच्छाइयां भी हैं।मैं उन्हें भी छापूंगा।’
मेरा मानना है कि पत्रकारिता की दृष्टि से माथुर साहब की इस बात को आदर्श माना जाना चाहिए।
मेरी राय में पत्रकार को चाहिए कि वह मोदी के  पक्ष या विपक्ष में जाने वाली हर तरह की सूचनाएं आम लोगों तक पहुंचाए ।वैसे इस बात का ध्यान रहे कि जो कुछ आप लिख रहे हैं,उसके सबूत आपके पास होने चाहिए।
आम लोग सही समय पर खुद सही-गलत का निर्णय कर लेंगे।
  हर पत्रकार भी एक मतदाता होता है।वह भी वोट देता है।मेरी राय में किसी भी मतदाता को यह देखना चाहिए कि देश व आम लोगों के सामने फिलहाल सबसे बड़ी दो या तीन भीषण समस्याएं कौन -कौन सी हैं।उन समस्याओं के हल में कौन सी पार्टी सबसे अधिक कारगर साबित हो सकती है ।वे उसे ही वोट दे।

 1.-नवाज शरीफ को विदेश में संपत्ति बनाने के आरोप में पाकिस्तान की अदालत ने सात साल की सजा दी।वहां की जनता ने उनकी पार्टी को चुनाव में हरा दिया।
 2.- खालिदा जिया के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगा तो बंाग्ला देश की अदालत ने भी उन्हें सात साल की सजा दी।
उनके पुत्र पर भी विदेश में एक बिलियन  डालर जमा करने का आरोप है।बांग्ला देश की जनता ने भी खालिदा जिया की पार्टी को चुनाव में हरा दिया।
 3.- अपने देश में भी कुछ महीने के बाद चुनाव होने वाला है।देखना है कि यहां की जनता भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ कैसा रुख अपनानी है।वैसे कई लोग यह कहते हैं कि पड़ोसी देशों की अपेक्षा हमारे यहां अधिक जीवंत लोकतंत्र है।

रविवार, 30 दिसंबर 2018

पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के नतीजों को देख कर आखिर कांग्रेस से गैर भाजपा-गैर कांग्रेस दल प्रभावित क्यों नहीं हैं ?हां,शरद पवार जरूर प्रभावित हैं।महाराष्ट्र में उन्हें कांग्रेस से मदद की जरूरत पड़ेगी।
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कारण
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1.-मिजोरम --इस चुनाव में कांग्रेस सत्ताच्युत हो गयी।
2.-तेलांगना-कांग्रेस बुरी तरह हारी।
3.-छत्तीस गढ़ की जीत कांग्रेस की जीत मानी जा सकती है। हांलाकि कुछ लोग चर्च व नक्सलियों का अधिक योगदान  मानते हैं।
4-राजस्थान-‘रानी की खैर नहीं,मोदी से बैर नहीं’ नारे के साथ वोट पड़े।फिर भी कांग्रेस व भाजपा के बीच मतों का अंतर आधा प्रतिशत ही  रहा।
5.-मध्य प्रदेश में एससी-एसटी एक्ट के कारण अधिकतर सवर्णों ने भाजपा को छोड़ दिया था।
फिर भी कांग्रेस की अपेक्षा भाजपा को कुल मिलाकर अधिक मत मिले थे।उस एक्ट को लेकर अब कमल नाथ सरकार क्या कर सकती है ताकि सवर्ण खुश हो जाएं ?
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यानी कांग्रेस की कोई हवा नहीं बनी।
ऐसे दल को नेता मान कर क्षेत्रीय दल क्यों जुआ खेलेंगे ?
क्षेत्रीय दलों के प्रभाव वाले कितने राज्यों में कांग्रेस उन्हें मदद करने की स्थिति में है ?
सबसे बड़ी बात। प्रधान मंत्री बनने का अवसर है तो किस  क्षेत्रीय दल का कौन नेता राहुल गांधी से खुद को अधिक होशियार व अनुभवी नहीं समझ रहा है ?


इंदिरा गांधी ने बाहर से समर्थन देकर 1979 में 
चरण सिंह की सरकार बनवाई थी।
बाद मंे चरण सिंह को यह संदेश भिजवाया कि संजय गांधी पर मोरारजी  सरकार ने जो मुकदमे कर रखे हैं,उन्हें आप वापस लीजिए।अन्यथा, हम आपको समर्थन जारी नहीं रखेंगे।
चरण सिंह ने मुकदमे खत्म करने से इनकार कर दिया।नतीजतन चरण सिंह की सरकार गिर गई।
इतना ही नहीं, समय से पहले लोक सभा का चुनाव करवाना पड़ा।
@---साप्ताहिक ‘रविवार’ः26 अगस्त 1979@
राजीव गांधी ने बाहर से समर्थन देकर चंद्र शेखर की सरकार बनवाई।
पर जब चंद्र शेखर ने बोफर्स तोप सौदा घोटाले से संबंधित मुकदमे को रफा -दफा करने से इनकार कर दिया तो राजीव गांधी ने चंद्र शेखर की सरकार गिरा दी।
नतीजतन समय से पहले लोक सभा को चुनाव करवाना पड़ा।
--@इंडिया टूडे -हिन्दी-28 फरवरी 1991 @
इन दोनोें अवसरों पर कांग्रेस ने कहा था कि गैर कांग्रेसी  सरकारों ने राजनीतिक बदले की भावना से केस दायर किए गए थे।
इन दिनों सोनिया-राहुल-राॅबर्ट वाड्रा सहित अनेक कांग्रेसियों पर केस चल रहे हैं।इन मामलों में कांग्रेस एक बार फिर कह रही है कि राजनीतिक बदले की भावना में आकर केस किए गए हैं।
 मान लीजिए कि 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद गैर -राजग दलों की सरकार बन जाए।
फेडरल फं्रट के नेताओं के मौजूदा रुख को देख कर तो लगता है कि वे किसी कांग्रेसी को प्रधान मंत्री नहीं बनने देंगे।
फिर क्या होगा ?
‘बदले की भावना से शुरू किए गए मुकदमों’ की वापसी का जोरदार प्रयास होगा।
फिर क्या होगा ? क्या 1979 और 1991 दुहराया जाएगा ?  
पता नहीं !

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

भ्रष्टों को फांसी क्यों नहीं ? !



भारत सरकार ने बच्चों के यौन शोषण पर
मौत की सजा का प्रावधान करने का कल निर्णय
 किया है।
हत्या सहित कुछ अन्य अपराधों में भी इस देश में फांसी 
का प्रावधान है।
 पर इस गरीब देश में सरकारी भ्रष्टाचार के अपराध में फांसी का प्रावधान बहुत जरूरी हो गया है।
दरअसल सरकारी धन लूटने की प्रवृति इतनी तीव्र है कि मामूली सजाएं उस प्रवृति पर काबू  पाने में बुरी तरह 
 असमर्थ हैं।
भ्रष्टाचार के लिए फांसी का कानूनी प्रावधान  दुनिया के 
जिन देशों में अभी है,उनके नाम हैं-
चीन,
इरान,
इराक,
मोरक्को,
म्यांमार ,
वियतनाम,
लाओस,
थाइलैंड,
इंडोनेशिया 
और नाॅर्थ कोरिया।
दरअसल अमीर देश का सरकारी  भ्रष्टाचार वहां की सुख -सुविधाओं में थोड़ी कमी  कर देता है।पर, भारत जैसे गरीब देश का सरकारी  भ्रष्टाचार कई बार अनेक गरीब व पिछड़े समुदाय के लोगों की मौत का कारण बनता है।
बताइए इस देश के कितने प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में इलाज की संतोषप्रद व्यवस्था है ? अधिकतर केंद्रों में नहीं है।क्योंकि सरकार कहती है कि हमारे पास उतने पैसे नहीं हैं।
दूसरी ओर आपके टैक्स के पैसों की कैसी लूट मची रहती है,यह हर जागरूक भारतीय जानता है। 
  1985 में तो तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने ही कह दिया था कि हम 100 पैसे दिल्ली से भेजते हैं,पर उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं।
इस मामले में आज की स्थिति क्या है, यह मैं नहीं जानता।पर 2014 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि सरकारी अफसर पूछते हैं कि ‘इसमें मेरा क्या ?’
जब जवाब मिलता है कि आपको कुछ नहीं मिलेगा तो वे कहते हैं कि ‘तो मुझे क्या ?’
यानी हम यह काम नहीं करेंगे।भले ही यह जनहित का हो।
आम लोग अच्छी तरह जानते हैं कि भ्रष्टाचार के मामले में  देश भर के सरकारी दफ्तरों में वास्तविक स्थिति क्या है।
मेरी तो राय है कि इस बार वोट मांगने जो आपके पास जाए,उससे यही कहिए कि पहले वादा करो कि भ्रष्टों के लिए फांसी वाला कानून बनाओगे।देखिए उस पर उम्मीदवार क्या कहता है !  

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

--माफिया के मानवाधिकार की चिंता--सुरेंद्र किशोर--

    
कुख्यात माफिया सोहराबुद्दीन शेख की मौत का 13 साल पुराना मामला एक बार फिर सतह पर आया।
सी.बी.आई अदालत ने जैसे ही आरोपी बनाए गए लोगों को सबूतों के अभाव में बरी करने का निर्णय किया,विपक्षी नेता भाजपा और मोदी सरकार पर हमलावर हो गए।
आखिर इस माफिया की मौत का विवादास्पद मामला बार -बार उठाने से विरोधी दलों और नेताओं को आखिर क्या हासिल होता है ?
सवाल यह भी है कि यह मामला उठा कर प्रतिपक्ष किसका भला करना चाहता है ? 
अपना, देश का या उल्टे भाजपा का ?
राजनीतिक घटनाएं तो यही बताती हंै कि 
 इससे अंततः भाजपा का ही भला होता है।
  यह जानना जरूरी है कि सोहराबुद्दीन शेख कौन था ?
इससे यह पता चल जाएगा कि उसके पक्ष में आवाज उठाने वाले कैसे लोग हैं।
सोहराबुद्दीन गुजरात के सबसे बड़े माफिया लतीफ का ड्रायवर था।लतीफ गुजरात में वही काम करता था जो काम महाराष्ट्र में दाऊद इब्राहिम करता था।
पहले लतीफ दाऊद का ही निकट सहयोगी था।
1993 में मुम्बई बम विस्फोट कांड में लतीफ और सोहराबुद्दीन दाऊद के सहयोगी थे।
पुलिस के अनुसार इनके लश्कर ए तोइबा से भी संबंध थे।
बाद में लतीफ और दाऊद के बीच झगड़ा हो गया।
एक बार गुजरात में जब लतीफ और दाऊद गैंग में झड़प हुई तो लतीफ गैंग भारी पड़ गया।
लतीफ ने दाऊद गैंग को भगा दिया।
इसके बाद लतीफ का गुजरात में उत्पात और भी बढ़ गया।
1997 में गुजरात पुलिस ने लतीफ को मुठभेड़ में मार दिया।
तब भी यह आरोप उछला कि मुठभेड़ नकली थी।अहमदाबाद पुलिस ने तब यह कहा था कि पुलिस की गिरफ्त से भागने के क्रम में वह मारा गया।
 जब लतीफ को मुठभेड़ में मारा गया, तब गुजरात में कांग्रेस समर्थित राष्ट्रीय जनता पार्टी की सरकार थी।@शंकर सिंह बघेला राजपा के नेता थे।@ 
दिलीप पारीख मुख्य मंत्री थे।  
नकली मुठभेड़ का आरोप लगाने से किसी राजनीतिक दल को कोई लाभ मिलनेवाला नहीं था,इसलिए उस समय किसी ने तुल नहीं दिया।
तब की गुजरात सरकार ने उन पुलिस अफसरों को सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जिन्होंने लतीफ को असली या नकली मुठभेड़ में मारा था।
  पर जब नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में 2005 में सोहराबुद्दीन मारा गया तोे देश भर में हंगामा खड़ा हो गया।
मुठभेड़ के समय गुजरात के गृह राज्य मंत्री रहे अमित शाह जेल भेजे गए।मामले की सुनवाई मुम्बई में होने लगी। कई बड़े पुलिस अफसर भी जेल भेजे गए।लेकिन गुजरात और राजस्थान में इस केस को लेकर भाजपा को कोई चुनावी नुकसान नहीं हुआ।
क्योंकि इन राज्यों के व्यापारी और अन्य लोग जानते थे कि सोहराबुददीन कैसा था और कौन सा धंधा करता था।
यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि सोहराबुद्दीन की नकली मुठभेड़ में मौत हुई तो उसे देखने के लिए जांचकत्र्ता और अदालतें हैं।
उन्हें अपना काम करने देना चाहिए।
इस प्रकरण में यह सवाल अधिक गहरा है कि आखिर जिस पर देशद्रोह और माफियागिरी का आरोप था, उसका मामला बार -बार उठाने और उसे राजनीतिक मसला बनाने का आखिर क्या मतलब  है ?
उन अल्पसंख्यकों की नकली मुठभेड़ में मौत का मामला वे लोग क्यों नहीं उठाते जो माफिया नहीं थे  ?
 दरअसल सोहराबुद्दीन की मौत पर आंसू बहाने वाले नेता यह उम्मीद करते हैं कि उससे उनका वोट बैंक मजबूत होगा।पर क्या ऐसा हो रहा है ?
कत्तई नहीं, बल्कि उल्टा ही हो रहा है क्योंकि जनता सब जानती है।
यदि हिरासत में अमानवीय ढंग से सताने का मामला ही लिया जाए तो प्रज्ञा सिंह ठाकुर का माामला पुलिस की क्रूरता का एक शर्मनाक नमूना रहा है।प्रज्ञा सिंह को मार -मार कर अशक्त कर दिया गया है।
वह अब व्हील चेयर पर हैं।पर उन पर किसी मानवाधिकारवादी को दया नहीं आ रही है।
प्रज्ञा सिंह पर जो आरोप हंै,उसका निर्णय अंततः अदालत करेगी।पर उन्हें मार -मार कर अशक्त बना देना कहां तक उचित है ?
यदि सोहराबुद्दीन मामले में हत्या का आरोप साबित हो जाए तो हत्यारों को समुचित सजा मिलनी ही चाहिए।
पर आखिर उसके गौरव गान से किसको क्या मिलेगा ? अथवा क्या मिल रहा है ?
हैरानी है कि इस मामले में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी तंज कस रहे हैं।  
 निर्दोष अल्पसंख्यकों और  अन्य लोगों को भी पुलिस द्वारा सताए जाने के अनेक मामले समय -समय पर देश भर से आते रहते हैं।पर पता नहीं क्यों उन पर चुप्पी छाई रहती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रपट के अनुसार सन 2000 से 2017 तक  देश भर से नकली मुठभेड़ों की 1782 शिकायतें उसे मिली थीं।
करीब एक दशक पहले  राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग उत्तर प्रदेश को नकली मुठभेड़ के मामले में कुख्यात प्रदेश मानता था।
2004-05 में उस प्रदेश मेें 54 ऐसे मामले घटित हुए । क्या यह विचित्र नहीं है कि इन में से किसी निर्दोष मृतक के मामले को नहीं उठाकर सोहराबुददीन का मामला रह -रह कर उठाया जाता रहा ?
याद रहे कि सोहराबुद्दीन जब मारा गया,उस समय वह वही काम करने लग गया था जो काम पहले लतीफ करता था।लतीफ के सारे हथियार उसके पास आ गए थे।उसके गैंग के लोग भी सोहराबुद्दीन के लिए काम करने लगे थे।
उसने उज्जैन के पास झिरन्या गांव में हथियार छिपा दिए थे।गुप्त सूचना के आधार पर पुलिस ने उस गांव के कुएं से बड़ी संख्या में घातक हथियार बरामद किए थे।
माना जाता है कि ये हथियार 1993 के मुम्बई बम कांड से पहले दाऊद ने बाहर से मंगवाए थे।इन बातों की चर्चा उन पूरे इलाकों में थी जहां सोहराबुद्दीन और लतीफ सक्रिय थे।
गुजरात और दो अन्य राज्यों के मार्बल व्यापारी भी सोहराबुददीन से काफी परेशान रहते थे।
वह उनसे मनमाना हफ्ता वसूलता था।उनके लिए व्यापार करना कठिन हो गया था।
यह देख कर अनेक लोगों को आश्चर्य होता है कि एक ऐसे सोहराबुद्दीन शेख का मामला उठाया जाता रहा जिस पर गंभीर आरोपों को लेकर 50 मुकदमे थे।
इनमें से कुछ की जांच तो केंद्रीय एजेंसियों के जिम्मे थी।
यदि सोहराबुददीन, कौसर बी और प्रजापति की मौत का मामला फिर अदालत में जाता है तो  अदालत को मेरिट के अनुसार इस केस की सुनवाई करने देना चाहिए।
इस मामले को लेकर राजनीति करने का कोई मतलब नहीं।याद रहे कि यदि भले और कमजोर लोगों को पुलिस सताती है तो उनका मामला उठाना ही वास्तविक मानवाधिकार का मामला है।
@ मेरा यह लेख 28 दिसंबर 2018 के दैनिक जागरण में प्रकाशित@


बिहार के कुछ सांसदों के कुछ अशोभनीय कारनामे



बिहार के कुछ सांसदों ने किस तरह समय-समय पर सदन की गरिमा को ठेस पहंुचाई,उसके कुछ ही उदाहरण यहां पेश हैं।
ऐसा नहीं कि अन्य राज्यों के सांसद ऐसा नहीं करते।
पर जब हमारे राज्य के करते हैं तो मुझे तो शर्म आती है।आपको भी ?
  साठ के दशक की बात है।पूर्वी बिहार के एक दबंग सांसद ने लोक सभा में जे.बी.कृपलानी को सी.आई.ए. का एजेंट कह दिया।
नेहरू के कटु आलोचकों के लिए प्रधानमंत्री के भक्तों के पास यही शब्द होता था।ऐसा नहीं कि उस समय भक्त नहीं हुआ करते थे।
मीडिया में भी होते थे।
वह उस समय की सबसे बड़ी राजनीतिक गाली मानी जाती थी।
देशभक्त कृपलानी को उस शब्द से गहरा सदमा लगा।वे बीमार हो गए।अस्पताल पहुंचाए गए।
जवाहरलाल नेहरू उन्हें देखने अस्पताल पहुंचे।
  बाद में नेहरू ने उस सांसद को बुला भेजा।उस सांसद को लगा कि खुश होकर पंडित जी बुला रहे हैं।अब राज्य मंत्री पद तो पक्का !
पर पंडित जी वैसे नेता नहीं थे जिस तरह के नेता बाद में उनके ही दल में हुए।
 सांसद महोदय वैसा कपड़ा पहन तीनमूत्र्ति भवन  गए जैसा पहन कर शपथ लेने के लिए राष्ट्रपति भवन जाया जाता है।
  पर उल्टा पड़ा।नेहरू ने उन्हें इतना डांटा कि किसी और को ऐसा कहने की बाद में हिम्मत नहीं हुई।कम से कम नेहरू के जीवन काल में।
नब्बे के दशक में बिहार के दो बाहुबली सांसद सदन में ही आपस में मारपीट पर उतारू हो गए।हाथापाई हो गयी।किसी तरह बीच -बिचाव करके स्थिति को और शर्मनाक होने से बचाया गया।
 तब गुजराल प्रधान मंत्री थे। 
  इस घटना पर ‘राजनीति के अपराधीकरण व भ्रष्टाचार’ आदि पर करीब एक सप्ताह तक दोनों सदनों ने खूब घडि़याली आंसू बहाए।बुराइयों को ठीक करने के लिए  प्रस्ताव पास हुआ।पूरे एक सप्ताह सदन में कोई दूसरा काम नहीं हुआ था।
पर बाद में व्यवहार में हुआ कुछ नहीं।बल्कि स्थिति और बिगड़ती चली गयी।
एक दिन तो बिहार के ही परस्पर विरोधी दलों के दो सांसदों ने आपस में ऐसी गंदी गाली -गलौज की जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।
  एक बार तो मध्य बिहार के एक सासंद ने स्पीकर के हाथ से महिला विधेयक की काॅपी छीन ली।
 हाल के वर्षों में जो कुछ हो रहा है,वह सब तो लोगों के दिल ओ दिमाग पर ताजा है।
  कुछ साल पहले बिहार की ही एक महिला सांसद ने सदन में ही कह दिया था कि हम तो सदन में शांति चाहते हैं,पर हमारी पार्टी के नेता कहते हैं कि हंगामा करो।    

1957 में भी मकान हथिया रहे थे बिहारी विधायक !



कुछ लोगों की एक खास धारणा है।वह धारणा  सरकारी बंगलों पर कब्जे को लेकर है।उनके अनुसार यह शुरूआत जेपी आंदोलन से जुड़े उन लोगों ने की जो 1977 के बाद विधायक बने थे।अब वे अपनी धारणा बदल लें।
रामवृक्ष बेनीपुरी की डायरी बताती है कि यह चलन  1957 में 
भी था।हालांकि कुछ जेपी आंदोलनकारियों ने भी वह काम 1977 में किया था।
  पर,बहुत सारी बातों को ‘श्रेय’ आप स्वतंत्रता सेनानियों  के अलावा किसी अन्य को नहीं दे सकते।
जिस तरह आजादी के तत्काल बाद साठी की जमीन पर कई प्रमुख कथित गांधीवादियों ने कब्जा शुरू कर दिया था,उसी तरह सरकारी मकानांे पर भी।
 1957 में कटरा नार्थ से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी  के विधायक बने ‘कलम के जादूगर’ बेनीपुरी जी के शब्दों में पढि़ए उस समय का आंखों देखा हाल और भोगा हुआ यथार्थ !!
‘क्वार्टर के लिए स्पीकर से मिला।
उन्होंने कहा ,किसी खाली मकान में घुस जाइए।
सुनकर चकित हुआ और स्पष्ट कह दिया,मुझसे यह नहीं होगा।
यदि जिन्दगी में यही करना होता तो , फिर आज मकान की क्या कमी होती ?
जहां जाऊंगा,डंका बजाकर जाऊंगा।
यह घुसने - घुसाने की मेरी आदत नहीं रही है।
उन्होंने एक दरखास्त लिखवाई।इस्टेट अफसर ने आर.ब्लाॅक में एक मकान मेरे नाम अलाॅट किया।
किन्तु जब उस मकान में गया ,एक अजीब बात !
वहां एक हारे उम्मीदवार का परिवार है।बातों में उन्होंने कहा कि रात टेलिफोन से बात करके भोर में खबर दूंगा।
भोर में देवेन्द्र गए,तो पाया ,एक दूसरे एम.एल.ए.साहब वहां आसन जमाए हुए हैं।
  संध्या को गया ,तो पाया, मकान के बाहरी दरवाजे पर मोटे -मोटे ताले लटक रहे हैं और भीतर कोलाहल है।
सामने के एक मकान में एक मित्र रहते हैं।उनसे बातें करने लगा।बीच -बीच में । खिड़कियां खुलती थीं-रोशनी होती थी,फिर खिड़की बंद,रोशनी गायब !
  मित्रों ने बड़े दिलचस्प दास्तान सुनाए। यहां यही होता है।लोग घर छोड़ते नहीं,यहां तक कि किराए पर उठा देते हैं।जिनके नाम पर अलाॅट हुआ ,जब तक वे जबर्दस्ती नहीं करते,कोई टस से मस नहीं होता !
बेचारे चांद बाबू ऐसे शरीफ आदमी को भी जबर्दस्ती पर उतारू होना पड़ा था।
दस -पंद्रह आदमियों के साथ पहुंचे ,घर में घुस गए ,तब कहीं वहां रम पाए।
  एक देवी जी अभी -अभी एक मकान में पिछले दरवाजे से घुस गईं हैं ! सीढ़ी लगा कर भीतर आती -जाती हैं।अभी बाहर ताला ही लटक रहा है।
  एक सज्जन किसी प्रकार घर छोड़ने को तैयार नहीं हुए ,तो उन पर सरकार ने नालिश की,बिजली का संबंध काट दिया,पानी का संबंध काट दिया।
तो भी दो साल तक डटे रहे !
   एक सज्जन को मेरी ही तरह हाल में मकान मिला।किन्तु जो सज्जन पहले से थे, वे हटने को तैयार नहीं।
तब एक दिन एक तमाशा लोगों ने देखा।पहले सज्जन एक ट्रक लोगों को ढोल झाल के साथ ले आए और भीतर घुस कर ऐसा शोर करने लगे कि दूसरे सज्जन को निकल भागना पड़ा।
 बेनी पुरी ,तुम भी यही करोगे ?
जिस विधान सभा के सदस्यों की यह हालत है,वहां से कोई अच्छा विधान कैसे निकल सकेगा ?
भगवान इस राज्य के रक्षक तुम्हीं हो ! और स्वराज्य की रूपरेखा यही है !
 कांग्रेस पार्टी के नेता के चुनाव में क्या -क्या नहीं हुआ है ?
श्रीबाबू और अनुग्रह बाबू में चालीस वर्षों की दोस्ती थी।
दोनों ऐसे लड़े कि कुत्ते भी मात !
कौन -कौन से कुकर्म नहीं किए गए।लाखों रुपए बंटे,सदस्यों की चोरी हुई।
कुछ बेचारे पिट भी गए।दिल्ली से लोग आए,शांत कहां तक करते ,आग लगा कर गए।
किसी तरह श्रीबाबू जीत गए !
 अब मंत्रिमंडल को लेकर छीछालेदर मची हुई है।
पटना-दिल्ली एक हो रहा है।
चारों ओर अराजकता है।जनता ने लड़  मर कर स्वराज्य लिया।वह स्वराज्य ऐसे हाथों में पड़ा है कि उसकी छीछालेदर हो रही है !
  गांधी जी ने कहा था,कांग्रेस को तोड़ दो।दिन -दिन सिद्ध हो रहा है,सारे अनर्थों की जड़ यही है।
 गांधीवादी भूदान में लगे हैं।नेहरूवादी शासन को हथिया कर जमे हैं।
बेचारी जनता जहां की तहां मौन-मूक खड़ी है !
 और मेरे ऐसे आदमी एम.एल.ए.होकर भी सड़क की धूल फांक रहे हैं !







नए साल में नेता लें चुनावी भाषणों में शालीनता का संकल्प--सुरेंद्र किशोर


अगले लोक सभा चुनाव के लिए अनौपचारिक प्रचार तो शुरू ही हो चुका है,पर औपचारिक प्रचार में भी अब अधिक समय बाकी नहीं है।
 तीन दिन बाद नया साल शुरू हो रहा है।नए साल में अनेक लोग कुछ न कुछ नया करने का संकल्प लेते  हैं।
 इस बार नेता लोग भी यह काम करें।
लोकतंत्र पर बड़ा उपकार होगा ,यदि वे यह संकल्प लें  कि प्रचार में शालीनता रहेगी।
  चुनावी सभाओं में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की जम कर आलोचना कीजिए।पर सिर्फ उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल कीजिए जिन शब्दों के इस्तेमाल की इजाजत नियमानुसार संसद में दी जाती है।आखिर चुनाव तो संासद चुनने  के लिए ही तो है !
पहले से ही प्रैक्टिस रहे तो बाद में ठीक रहेगा।
आम तौर से आज कल अनेक नेतागण अपने विरोधियों के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं,उनमें से अनेक शब्द असंसदीय हैं।कोई आम शालीन व्यक्ति आम बोलचाल में वैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करता।
हालांकि सारे नेता  अशिष्ट शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते।
वाद -विवाद के स्तर में गिरावट के बावजूद आज भी  कुछ  ऐसे नेता भी मौजूद  हंै जो शालीन शब्दों का ही इस्तेमाल करते हैं।
  पर वह तो अपवाद है।
पिछले एक चुनाव में बड़े -बड़े नेताओं ने एक दूसरे के खिलाफ तब तक के अश्लीलत्तम शब्दों का इस्तेमाल किया था। माहौल में कटुता फैल गई थी। 
 चुनाव के बाद बिहार के एक बड़े नेता ने कहा कि इसे होली की गालियों की तरह ही भुला दिया जाना चाहिए।
 पता नहीं कि नेतागण भूल पाए या नहीं,पर आम नौजवानों के दिल ओ दिमाग पर उन गालियों का कैसा असर पड़ा होगा,इसका तनिक भी एहसास नेतओं को है ?
अरे भई, इस लोकतंत्र को गरिमापूर्ण बनाए रखोगे तो अच्छे लोग राजनीति में आने को सोचेंगे।
पहले से एक खास धारणा बनी हुई है।यानी राजनीति में जाने पर वहां झूठ बोलने की मजबूरी होती है।
अब यह धारणा बन रही है कि गाली -गलौज करना भी जरूरी होगा।
कम से कम इस धारणा को निर्मूल करने के लिए तो नए साल में नेतागण  संकल्प लें।
  --पेशकार तो पकड़ाए,पर ऊपर वाले ?--
बिहार निगरानी अन्वेषण ब्यूरो ने जांच में पाया है कि पटना निबंधन कार्यालय के रिटायर पेशकार देवेन्द्र प्रसाद सिंह के पास पटना में तीन मकान व फ्लैट हैं।सालिम पुर अहरा,खजांची रोड और आलम गंज में आवासीय संपत्ति है।इसके अलावा भी  संपत्ति का भी पता चला है।
जाहिर है कि यह सब जायज आय से संभव नहीं है।
पर, यह तो पेशकार की संपत्ति है।इस पेशकार ने जिन-जिन
निबंधकों के साथ काम किए,उनके पास कितनी संपत्ति होगी ?इसका अंदाजा कोई भी जानकार व्यक्ति लगा सकता है।
इसकी जांच ब्यूरो की रूटीन ड्यूटी में शामिल होनी चाहिए।
  पर वैसा तो होता नहीं है।
इसलिए इस संबंध में एक नियम बनना चाहिए।
देवेन्द्र जैसा कोई भी पेशकार,मुंशी अथवा निजी सचिव बड़ी संपत्ति के साथ पकड़ा जाए तो उनके बाॅस यानी साहबों की
 संपत्ति की भी जांच करा लेना कानूनन जरूरी होना चाहिए।भले उनके खिलाफ कोई शिकायत आई हो या नहीं।भले वे जांच के बाद निर्दोष पाए जाएं।
यदि ऐसा कानून बन जाए तो फर्क पड़ेगा।
कौन नहीं जानता कि कोई जिला परिवहन पदाधिकारी अपनी नाजायज आय की राशि में से ही ऊपर भी पहुंचाता है।कभी कभी डी.टी.ओ. तो निगरानी की चपेट में आ जाता है,पर ऊपर वाले का बाल बांका नहीं होता।
--विधायिका में हंगामे से सरकार को ही राहत--
आए दिन यह खबर आती रहती है कि फलां अफसर या कर्मचारी घूस लेते रंगे हाथ पकड़ा गया।
पर बाद में लोग भूल जाते हैं कि उस अफसर का क्या हुआ ?
उसे अंततः सजा हुई या वह सजामुक्त हो गया ?
यदि विधायिका की बैठकें सुचारू रूप से चलतीं तो कोई सदस्य एक  सवाल पूछता।वह सवाल ऐसे सरकारी सेवकों के बारे में होता।सवाल होता कि पिछले पांच साल में कितने सरकारी सेवकों को घूस लेते हुए रंगे हाथ पकड़ा गया ? उनमें से कितनों को सजा हुई ?
कितने दोषमुक्त हुए ?
जानकार लोग बताते हैं कि ऐसे मामलों में 90 प्रतिशत से अधिक घूसखोर अंततः सजामुक्त हो जाते हंै।
 यदि विधायका  में संबंधित मंत्री यह जवाब दे कि 90 प्रतिशत दोषमुक्त हो गए तो जनता में सरकार की कितनी फजीहत होगी ?
  पर सदन को प्रतिपक्ष चलने दे तब तो ऐसे सवालों के जवाब हो ! यानी, ऐसे मामले में प्रतिपक्ष जाने- अनजाने सरकार की ही मदद कर देता है। बल्कि उन भ्रष्ट सेवकों का सहायक सिद्ध होता है जो येन केन प्रकारेण अंततः सजा से बच जाते हैं।
  --सहयोगी दल पर बरसती कृपा--
उत्तर प्रदेश में ‘अपना दल’ भाजपा की सहयोगी पार्टी है।
आजकल अपना दल  भाजपा से नाराज चल रहा है।हालांकि चुनाव के ठीक पहले अधिकतर सहयोगी दल अपने -अपने कारणों से थोड़ा नाराज हो ही जाते हैं।समय के साथ कुछ मान जाते हैं, पर कुछ अन्य विद्रोह कर बैठते हैं।
  अपना दल क्या करेगा ?
देखना दिलचस्प होगा।
हालांकि भाजपा को ‘अपना दल’ से ऐसी उम्मीद नहीं थी।
क्योंकि भाजपा सरकारों ने अपना दल के नेताओं पर हाल ही में बड़ी कृपा बरसाई थी।
अपना दल के अध्यक्ष आशीष पटेल उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य हैं।
उन्हें सरकार ने हाल में वह बंगला दे दिया जो पहले पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत नारायण दत्त तिवारी को मिला हुआ था।
इससे पहले मायावती वाला बंगला  शिवपाल सिंह यादव को मिल चुका है।
  इतना ही नहीं,केंद्रीय राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल को हाल में नई दिल्ली के सफदरजंग रोड पर बड़ा बंगला दे दिया गया।
--भूली बिसरी याद--
दिवंगत लहटन चैधरी बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष थे।सांसद थे।राज्य में कैबिनेट मंत्री थे।
1987 में उनकी आत्म कथा आई थी।
कोसी योजना की दुर्दशा के बारे में उन्होंने आत्म कथा में लिखा था कि ‘कोसी नदी की बाढ़ की विभीषिका से त्राण पाने के नाम पर ठेकेदारों, इंजीनियरों और नेताओं के सगे- संबंधियों ने सरकारी धन को जम कर लूटा है।’
 उन्होंने लिखा कि ‘सन् 1954 की भीषण बाढ़ के बाद सन 1955 में नदी के किनारे तटबंध बनाने और वीर पुर में बराज निर्माण का काम शुरू किया गया।
पर आज क्या हो रहा है ?
कोई अंधा भी देख सकता है कि कोसी योजना में किस तरह बेदर्द और बेशर्म लूट का बाजार गर्म है।
कौन नहीं जानता कि 25-30 प्रतिशत भी काम किए बगैर शत -प्रतिशत का भुगतान ठेकेदारों को कर दिया जाता है।
कहीं- कहीं तो केवल कागज पर ही बिल बना कर पैसे उठा लिए जाते हैं।ये ठेकेदार कौन हैं ?
कुछ पेशेवर ठेकेदार तो हैं ही,लेकिन इसमें भरमार है इंजीनियरों और नेताओं के सगे -संबंधियों की।
साथ ही, ऐसे गुंडा तत्व हैं जो रिवाल्वर के बल पर काम लेते हैं और बिल बनवाते हैं।’
चैधरी जी ने तो इतना ही लिखा।अब दो अन्य कहानियां पढि़ए।ऐसी लूट के खिलाफ विरोधी दलों के नेताओं ने सत्तर के दशक में वीर पुर में जन सभा की।जन सभा पर पुलिस संरक्षित गुंडों ने हमला कर दिया।उस हमले में दो पूर्व मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर और सरदार हरिहर सिंह को भी चोटें आई थीं।
एक बंगाली इंजीनियर ने जब जाली बिल का विरोध किया तो ठेकदारों ने उसकी बेटी के साथ उसके सामने ही  बलात्कार किया।बेचारा इंजीनियर पागल हो गया।कभी ऐसे भी चलता था 
बिहार का शासन !! 
--और अंत में-
यह अच्छी बात है कि पटना के राम कृष्ण नगर थाने के बेईमान टोला का नाम बदल कर लोगों ने ‘नया चक’ कर दिया।
पर,बिहार में एक गांव का नाम ‘चोरवा टोला’ भी है।
ऐसे नामों को बदलने का अभियान चलाने की जरूरत है।
@--कानोंकान-प्रभात खबर-बिहार-28 दिसंबर 2018@

राजमाता सिंधिया ने 1967 में उलट दी थी मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री की कुर्सी



         
ज्योतिरादित्य सिंधिया तो इस बार मुख्य मंत्री नहीं बन सके,पर उनकी दादी राजमाता सिंधिया ने सन 1967 में  कांग्रेसी मुख्य द्वारिका प्रसाद मिश्र की कुर्सी उलट दी थी ।
  एक सभा में राज घरानों के खिलाफ मुख्य मंत्री मिश्र की अमर्यादित टिप्पणी से कांग्रेसी सांसद विजया राजे सिंधिया सख्त नाराज थीं।
 डी.पी.मिश्र के बाद मुख्य मंत्री बने गोविंद नारायण सिंह मिश्र मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किए जाने से नाराज थे।
 1967 के आम चुनाव के बाद तो राजनीति के ‘चाणक्य’माने जाने वाले  मिश्र के नेतृत्व में मध्य प्रदेश में कांग्रेसी सरकार तो बन गयी,पर वह सिर्फ चार महीने ही चल सकी। 8 मार्च, 1967 से 29 जुलाई 1967 तक ही।
ऐसे मुख्य मंत्री को राजमाता ने उलट दिया जिन्होंने एक ही साल पहले इंदिरा गांधी को प्रधान मंत्री बनाने में ‘चाणक्य’ की भूमिका निभाई थी।
हालांकि डी.पी.मिश्र बाद के वर्षों में जवाहर लाल नेहरू के विरोधी हो गए  थे।
मिश्र जी की शिकायत थी कि तिब्बत को हड़प लेने पर   नेहरू ने चीन का विरोध नहीं किया।
 एक बार तो मिश्र ने यह भी कहा दिया था कि मैं 1962 में जवाहर लाल नेहरू को प्रधान मंत्री नहीं बनने दूंगा।
हालांकि वे उस ‘पहाड’़ को नहीं हिला सके थे।
1967 के चुनाव के बाद उपजे  तरह-तरह के असंतोष के कारण मध्य प्रदेश विधान सभा के कुल 167 कांग्रेसी विधायकों मेें से 36 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी।हालांकि उस दल बदल के सिलसिले में भी कई नाटकीय घटनाएं भी हुर्इं जिसकी एक पात्र राजमाता थीं।
  कहा जाता है कि यदि उनके पास गैर राजनीतिक  ताकत नहीं होती तो दलबदलू विधायकों का सत्ता ने अपहरण कर लिया होता।
तब की एक पत्रिका के अनुसार, 1963 में द्वारिका प्रसाद मिश्र के मुख्य मंत्री होने पर भोपाल के समाचार पत्रोें के दफ्तरों में 
राज्य के विभिन्न कोनों से अनेक पत्र आये  थे जिन में लौह पुरूष श्री मिश्र को अवतार और देवता मान कर उनके दर्शन की लालसा व्यक्त की गयी थी।
मिश्र के मुख्य मंत्री बनने के बाद चार- छह महीने तक खूबसूरत जाल अपनी ओर लोगों को आकर्षित किए रहा।
लेकिन वास्तविकता जैसे -जैसे सामने आती गयी ,जनता का मोह टूटता गया।बाद के दिनों में उसके सामने सिर्फ मिश्र मंत्रिमंडल की तानाशाही और नौकरशाही रही।अंततः असंतोष का विस्फोट हुआ।’
 मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में 30 जुलाई 1967 को 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल गठित हुआ।उस प्रथम गैर कांग्रेसी मंत्रिमंडल में उन 36 दलबदलू  कांग्रेसी विधायकों में से 19 दल बदलू शामिल किए गए।जनसंघ घटक से 7 मंत्री बने।
राजमाता की पार्टी जन क्रांति दल से पांच मंत्री बने।
जनसंघ घटक के वीरेंद्र कुमार सकलेचा उप मुख्य मंत्री बनाए गए। 
हालांकि गोविंद नारायण सिंह की सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी।
कहा गया कि राजमाता की ओर से शासन में  लगातार हस्तक्षेप को अंततः गोविंद नारायण सिंह सहन नहीं कर सके।वे सन 1969 के मार्च में पद से हट गए।फिर कांग्रेस में शामिल हो गए।
राजीव गांधी के शासन काल में उन्हें  बिहार का  राज्यपाल बनाया गया था।पर उनका मुख्य मंत्री से लगातार टकराव चलता रहा।
उन दिनों  एक दलबदलू का तर्क था कि विंस्टन चर्चिल ने भी मतभेदों के कारण 1904 में दल बदल किया था।पहले वे कंजर्वेटिव पार्टी से चुने गए ।फिर लिबरल पार्टी में शामिल हो गए थे।
सन 1967 के आम चुनाव में  देश में कांग्रेस विरोधी हवा थी।
सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी।
लोक सभा में भी उसका बहुमत पहले की अपेक्षा कम हो गया।कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी दल बदल के कारण कांग्रेस सरकारें गिर गयीं।
उत्तर प्रदेश में किसान नेता चरण सिंह ने अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़ कर चंद्रभानु गुप्त की कांग्रेसी सरकार गिराई।चरण सिंह खुद मुख्य मंत्री बने। मध्य प्रदेश में कांग्रेसी सरकार गिराने में सिंधिया घराने ने मुख्य भूमिका निभाई।पर मुख्य मंत्री कोई और बना।गोविंद नारायण सिंह के पिता अवधेश प्रताप सिंह विंध्य प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री रह चुके थे।
 विजया राजे सिंधिया के पति जीवाजी राव सिंधिया मध्य भारत के राज प्रमुख थे।
पर जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो मध्य भारत मध्य प्रदेश का हिस्सा बन गया।
 मध्य प्रदेश में कांग्रेसी सरकार के अपदस्थ होने के बाद श्यामा प्रसाद शुक्ल और अर्जुन सिंह दिल्ली गए।हाईकमान के सदस्यों से अलग -अलग  मिले।
दोनों मिश्र मंत्रिमंडल के सदस्य थे।अर्जुन सिंह ने हाईकमान से  कहा कि डी.पी.मिश्र अब भी मध्य प्रदेश के बेताज बादशाह हैं।उन्हें ही आगे भी मौका मिलना चाहिए।पर श्यामा चरण शुक्ल नए नेतृत्व के पक्ष में थे।सन 1969 में श्यामा चरण शुक्ल मुख्य मंत्री बनाए गए।--सुरेंद्र किशोर 
@मेरा यह लेख फस्र्टपोस्ट हिन्दी में प्रकाशित@

   


 मिली जुली सरकारों का रहा है मिला जुला रिकाॅर्ड
--सुरेंद्र किशोर 
इस देश में मिली जुली सरकारों के स्थायित्व का रिकाॅर्ड भी मिला जुला ही रहा है।
  विभिन्न दलों के गंठजोड़ से बनी सरकारों ने  चार दफा अपना कार्यकाल पूरा किया ।तो अन्य मामलों मेंं इतने ही दफा समय से पहले सरकारें गिर गईं।
   एक बार फिर 2019 के चुनाव के बाद  मिली जुली सरकार बनने की जब संभावना जाहिर की जा रही है तो उसके स्थायित्व को लेकर भी अभी से ही सवाल उठने लगे हैं।
  ऐसे में पिछले रिकाॅर्ड को देख लेना दिलचस्प होगा।
अब तक इस देश में लोक सभा के सोलह चुनाव हो चुके हैं।
यदि सभी सरकारों ने अपने कार्यकाल पूरे किए होते तो अब तक मात्र 12 चुनाव होने चाहिए थे।
यानी चार अतिरिक्त चुनाव हुए।
 चार चुनावों का भारी अतिरिक्त व गैर जरूरी खर्च इस गरीब देश के कर दाताओं को ही उठाना पड़ा।
  सरकारों की अस्थिरता के कारण ऐसा हुआ।
कभी कभी सवाल उठता है कि इसके लिए नेता जिम्मेदार रहे या जनता ?
ऐसे में अधिकतर मतदाता यही चाहते हैं कि अनावश्यक चुनावों की नौबत न आए।अब देखना है कि आगे क्या होता है !
वैसे इस सिलसिले में यह जान लेना प्रासंगिक होगा कि ऐसा नहीं है कि अपने देश में  सिर्फ मिली जुली  सरकारें ही अस्थायी साबित हुई हंै।कई बार तो बहुमत वाली सरकारों ने भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया।या फिर पूरा नहीं होने दिया गया।
1967 और 1977 इसके उदाहरण हैं।
1969 में कांग्रेस के महा विभाजन के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गयी थी।
सी.पी.आई. और द्रमुक जैसे कुछ दलों ने सरकार को बाहर से समर्थन किया और सरकार चलने लगी।
पर जब इंदिरा गांधी ने यह महसूस किया कि उन्हें दबाव में काम करना पड़ रहा है ।नतीजनत  उन्होंने समय से एक साल पहले ही लोक सभा का मध्यावधि  चुनाव 1971 में करवा दिया।
 1977 की मोरारजी देसाई सरकार एक दल के बहुमत वाली सरकार थी।पर सत्ताधारी जनता पार्टी में विभाजन के कारण बीच में ही सरकार गिर गई।
  1999 में गठित अटल बिहारी वाजपेयी  सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। यह मिली जुली सरकार थी।
हां,उस सरकार ने अपनी मर्जी से कार्यकाल पूरा होने के कुछ महीने पहले ही चुनाव करवा दिया।वैसा करने की उनके लिए कोई मजबूरी नहीं थी।
2004 और 2009 में गठित मिली जुली मन मोहन सिंह सरकार
ने अपने कार्यकाल पूरे किए।
1991 में पी.वी.नरसिंह राव  के नेतृत्व में गठित सरकार को भी लोक सभा में बहुमत नहीं था।
कांग्रेस को 1991 के लोक सभा चुनाव में सिर्फ 244 सीटें आई थीं।
पर जोड ़तोड़ कर राव ने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया।
नब्बे के दशक में बारी -बारी से एच.डीे. देवगौड़ा और आई.के गुजराल के नेतृत्व में बनी सरकारें अपने कार्यकाल पूरे नहीं कर सकीं।
 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित मिली जुली सरकार भी नहीं चल सकी।
आजादी के बाद के पहले पांच  चुनावों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला था। सरकारें चलती रहीं।
आपातकाल में 1976 में लोक सभा की आयु एक साल बढ़ा दी गयी थी।
 1989 से इस देश में राजनीतिक अस्थिरता का दौर चला।
राज्यों में तो यह दौर 1967 के बाद से ही चल पड़ा था।
केद्र में 1984 के बाद पहली बार 2014 में किसी दल को लोक सभा में पूर्ण बहुमत मिला।
 2014 में गठित नरेंद्र मोदी सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी,इसमें कोई शक नहीं है।
पर 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद लोक सभा में दलगत स्थिति क्या होगी,इसका कोई अनुमान लगाना अभी कठिन है।  
दरअसल 2014 के चुनाव में कांग्रेस की भारी हार के बाद और भी स्थिति अनिश्चित हो गयी है।गत चुनाव में कांग्रेस को मात्र 44 सीटें मिली थीं।
राजनीतिक अस्थिरता व अनिश्चतता का सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस का कमजोर होना।एक समय ऐसा भी था जब कांग्रेस देश का पर्याय बन चुकी थी।यह और बात है कि हर बार उसे 50 प्रतिशत से कम ही मत मिले।
कांग्रेस को लोक सभा चुनाव मंे 6 बार 300 से अधिक सीटें आईं।
3 बार 2 सौ से अधिक सीटें मिलीं।
6 बार 100 से अधिक सीटें आईं।एक बार तो 44 सीटें ही मिल पाईं।
2014 में सबसे कम 44 और 1984 में सबसे अधिक 404 सीटें। 
हाल में कांग्रेस की स्थिति में सुधार जरूर हुआ है।पर सुधार की रफ्तार इतनी तेज नहीं है कि इस बात कव पक्का  अनुमान किया जा सके कि कांगेस को अगली बार बहुमत मिल ही जाएगा।भाजपा 2014 वाली स्थिति पर पहुंचेगी,यह भी नहीं कहा जा सकता।
हां,राजनीतिक हलकों में यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि मोदी सरकार ने इस बीच कुछ चैंकाने वाले फैसले किए तो उसे एक बार फिर बहुमत मिल सकता है।
जो हो, अधिकतर राजनीतिक पंडितों का यही अनुमान है कि सरकार जिस पक्ष की भी बने मिली जुली ही होगी।
  हालांकि मिली जुली से भी क्या घबराना जबकि स्थायित्व के मामले में मिला जुला अनुभव रहा है।
@फस्र्टपोस्ट हिन्दी में 24 दिसंबर 2018 को प्रकाशित@

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

सिमी ने वर्ष 2001 में ही बताया दिया था अपना लक्ष्य, अब संगठन का नाम ही बदला है ...


यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के नेतृत्व में भाजपा का शिष्टमंडल 19 अगस्त, 2008 को चुनाव आयोग दफ्तर गया था। शिष्टमंडल ने आयोग से मांग की थी कि सिमी जैसे आतंकवादी संगठन का पक्ष लेने वाले दलों की मान्यता खत्म की जाए। सिन्हा व शौरी ने तब सही काम किया था।

पर कल राॅकेट लांचर के साथ मौलवी और इंजीनियरिंग छात्र सहित 10 लोग धराए हैं। एन.आई.ए. ने उन आतंकियों को पकड़ा है। देश को दहलाने व कुछ हस्तियों को नुकसान पहुंचाने की उनकी योजना थी। वे बगदादी के आइएस से प्रभावित हैं। विदेश से दिशा—निदेश ले रहे थे।

कल टी.वी. चैनलों के डिबेट शो में बैठकर कुछ हस्तियां उल्टे राष्ट्रीय जांच एजेंसी की इस कार्रवाई का कड़ा विरोध कर रही थीं। इस पर यशवंत सिन्हा व अरुण शौरी जैसे समझदार नेताओं के भी विचार आने अभी बाकी हैं।

भाजपा विरोधी अन्य दल भी चुप हैं।

2019 में उनकी सरकार बन सकती है। फिर वे ऐसे आतंकियों के साथ कैसा सलूक करेंगे? यह यक्ष प्रश्न है। क्या जिस तरह कांग्रेसी सलमान खुर्शीद ने प्रतिबंधित सिमी की कोर्ट में वकालत की थी, एक बार फिर वैसा ही काम वे करेंगे?

याद रहे कि जब सिमी पर प्रतिबंध लगा तो उसके लोगों ने इंडियन मुजाहिददीन बना लिया।

केरल पुलिस सूत्रों के अनुसार  पोपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया सिमी का ही नया रूप है। सिमी की पत्रिका ‘इस्लामिक मूवमेंट’ सितंबर 1999 के संपादकीय ने सेक्यूलर लोकतंत्र के बजाए जेहाद और शहादत की अपील की।

सिमी (अहमदाबाद) के जोनल सेक्रेटरी साजिद मंसूरी ने टाइम्स आॅफ इंडिया (30 सितंबर 2001) को बताया था कि ‘जब भी हम सत्ता में आएंगे, हम मंदिरों को नष्ट कर देंगे और वहां मस्जिद बनाएंगे।’

अब तो ‘बगदादी की सेना’ से इस देश का सामना हो रहा है। आई.एस.आई.एस. ने वरीय ओवैसी को जान से मारने की पहले ही धमकी दे रखी है। क्योंकि ओवैसी ने आईएसआईएस का विरोध किया था।

यानी आईएसआईएस ऐसा संगठन है जिसे ओवैसी का ‘अतिवाद’ भी बहुत हल्का लगता है। वह अतिवादिता में सिमी से भी बहुत आगे है। इसके बावजूद इस देश के तथाकथित सेक्युलर दल व बुद्धिजीवी कल के खुलासे से कहीं से भी चिंतित नहीं हैं। बल्कि उन में से कुछ लोग एन.आई.ए. की ही आलोचना कर रहे हैं।

कल टीवी चैनलों में बैठकर कुछ लोग सनातन संस्था से इसकी तुलना कर रहे थे।

सनातन संस्था एक विवादास्पद सगठन है। पर क्या सनातन संस्था ने कभी यह बयान दिया है कि हम हथियारों के बल पर राजसत्ता पर कब्जा कर लेंगे और सत्ता में आने पर किसी के धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करके अपना धार्मिक स्थल वहां बना देंगे ? याद रहे कि जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया, उन पर केस चल रहा है।  

पटना—सारण के बीच होगा नया पुल


आखिर वह अच्छी खबर मिल ही गई जिसकी मुझे बेसब्री से प्रतीक्षा थी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गंगा नदी पर दानापुर यानी शेरपुर व दिघवारा के बीच नए पुल निर्माण के लिए अपनी सहमति दे दी।


उन्होंने पथ निर्माण मंत्री नंदकिशोर यादव से फोन पर बातचीत की और कहा कि आप इस पुल के लिए निजी तौर पर पहल करें।इसके लिए कवायद तेज कर दें। इसके लिए सारण के भाजपा सांसद व राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी और जिले के प्रमुख जदयू नेता शैलेंद्र प्रताप मंगलवार को मुख्यमंत्री से मिले थे।


इस पुल में मेरा निजी स्वार्थ भी है और इससे सार्वजनिक भला भी होने वाला है। प्रस्तावित शेरपुर-दिघवारा पुल जिस दिन बन कर तैयार हो जाएगा, उस दिन से पटना महानगर पर से आबादी का बोझ घटना शुरू हो जाएगा।


यानी सारण जिले के दिघवारा से लेकर सोनपुर तक एक "नये नोयडा" के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार हो जाएगी। गाजियाबाद से दिल्ली की जितनी दूरी है, उससे काफी कम दूरी दिघवारा से पटना महानगर की होगी। गंगा पार जमीन व आवास सस्ते मिलेंगे। पटना पर से आबादी का बोझ कम यानी पटना में बेहतर पर्यावरण।


मेरा स्वार्थ यह है कि मेरा पुश्तैनी गांव जाना आसान हो जाएगा।  



हे टी.वी.के बहसबाजो !


बगदादी नीत आई.एस.आई.एस. प्रेरित आतंकवादी गिरोहों के भारतीय ठिकानों पर एन.आई.ए. ने कल छापे मारे। हथियार व अन्य आपत्तिजनक सामग्री बरामद की गयी। यह भी पता चला कि वे व्हाटसेप व इस तरह के आधुनिक साधनों का भी इस्तेमाल करते हैं। विदेश शक्ति से जुड़े हुए हैं।

कम्प्यूटर निगरानी के लिए हाल के केंद्र सरकार के निदेश का विरोध करने वाले लोग इस पर एक बार फिर सोचेंगे ? पता नहीं। लगता तो नहीं। बगदादी के स्थानीय चेलों का इरादा इस देश को दहलाने का था और है।

इस छापेमारी-गिरफ्तारी पर कल टी.वी. चैनलों पर गर्मागर्म बहसें हुईं। उन बहसों में कुछ लोगों के तर्कों को सुनकर मध्य युग के इस देश के इतिहास की याद आ गई।

आई.एस.आई.एस.का प्रकारातंर से बचाव करने वाले लोगों को यह भी खबर है कि उस दुर्दांत संगठन ने वरीय ओवैसी को भी जान से मार देने की धमकी दे रखी है। यानी ओवैसी बंधुओं का अतिवाद भी उन्हें हल्का लगता है। वे हथियारों के बल पर इस देश में कैसा अतिवादी शासन स्थापित करना चाहते हैं ?

बगदादी के ऐसे मानस पुत्रों का बचाव करने वाले लोग खुद के और इस देश के भविष्य के बारे में जरा सोच लें। इस स्थिति का फायदा उठाकर इस देश में कोई तानाशाह पैदा हो जाए तो क्या होगा ? 

हे टी.वी.के बहसबाजो ! वैसी स्थिति मत पैदा करो। 

चीन अपने यहां के ऐसे मामले में पूरी दुनिया को एक राह दिखा भी रहा है।  

भारत एक गंगा -जमुनी संस्कृति वाला देश है। लाखों गांवों में अल्पसंख्यक मुसलमान—हिन्दू भाइयों के साथ शांति से मिलजुल कर रह रहे हैं। शहरों के मुस्लिम बहुल इलाकों में बसने वाले अतिवादियों को चाहिए कि वे उनके सुख—शांति का भी ध्यान रखें।
अनेक निजी न्यूज चैनलों के डिबेट शो में ‘......भुकाओ कार्यक्रम’ चलता रहता है।
अनेक श्रोता-दर्शक बद्दुआ करते रहने के बावजूद देखते रहते हैं।कुछ ही अति शालीन लोगों ने देखना छोड़ा है। 
  जो नेता-प्रवक्ता गण इन ‘....कांव कांव-झांव झांव’ कार्यक्रमों में शामिल होते हैं,आने वाले वर्षों में उनमें से ही कुछ लोग संसद -विधान सभाओं के सदस्य बनेंगे।
  उधर संसद की  अध्यक्ष संसद की गरिमा की पुनर्वापसी के लिए कुछ उपाय कर रही हैं।
  पर यदि डिबेट  वाला झांव झांव ब्रिगेड अपनी इसी उदंड आदत के साथ संसद में चला जाएगा तो पीठासीन पदाधिकारी गण इनसे  भी परेशान रहेंगे।
अभी तो ये लोग एंकर की नहीं सुनते,बाद में वे स्पीकर की नहीं सुनेंगे।
   ऐसे में एक उपाय हो सकता हे।
संसद व विधायिकाओं के पीठासीन पदाधिकारीगण अपने यहां के चैनलों के लोगों को अनौपचारिक रूप से बुलाएं और शालीन लोकतंत्र के नाम पर उनसे आग्रह करें कि इन नेताओं व प्रवक्ताओं को शालीनता बरतने के लिए आप  बाध्य करें ताकि लोकतंत्र शर्मसार न हो।सिटिंग अरेजमेंट बदल कर व जरूरत पड़ते ही माइक डाउन कर उन्हें आसानी से पटरी पर लाया जा सकता है।
  साथ ही, आदतन उदंडियों को वे कभी न बुलाएं।
 याद रहे कि हाल ही में एक चैनल के डिबेट शो में भाजपा बनाम सपा प्रवक्ता ऐसे उलझे कि पुलिस बुलानी पड़ी।
  इसके बाद भी अधिकतर चैनलों में झांव झांव- कांव कांव  जारी है। 
हालांकि कुछ चैनलांे के इस बेसुरे राग व भीषण शोरगुल के बीच कुछ चैनलों ने बहस-चर्चा  की गरिमा बनाए रखी है।वे धन्यवाद के पात्र हैं।

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

अगले लोक सभा चुनाव के उम्मीदवारों से 
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जो लोग कहते हैं कि राजनीति और प्रशासन  से भ्रष्टाचार
 खत्म नहीं हो सकता ,वे सिंगा पुर के संस्थापक शासक ली कुआन यू @1923-2015@की कहानी पढ़ लें।
 यह कि उन्होंने किस तरह सिंगा पुर को बदल दिया।
कुछ लोग यह भी कह देंगे  कि सिंगा पुर जैसे छोटे देश को बदलना आसान है,भारत जैसे बड़े देश को नहीं।
  अरे यार, मुम्बई महा नगरपालिका तो छोटा भूभाग है।हमारे नेता और अफसर उसे भी तो ठीक नहीं कर पाते।जबकि, मुम्बई महा नगरपालिका का सालाना बजट@37 हजार करोड़ रुपए@गोवा के बजट@17 हजार करोड़@से काफी  अधिक है।
अन्य बातों के अलावा मुम्बई में हर साल बरसात मेंें सड़कों पर भारी जल जमाव होता है ।आए दिन  सड़कों पर जहां -तहां  गड्ढे ही गड्ढे मिलते  हैं।
  यदि करने हों तो उसके बहुत से उपाय मिल जाते हंै और न करने के बहुत से बहाने निकल आते हैं।
  जिस देश में अधिकतर नेताओं और अफसरों का सबसे बड़ा कर्म सरकारी धन लूटना हो ,वहां और भला क्या हो सकता 
है ! ?

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

संदर्भ ः नसीरुद्दीन शाह का भय
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क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की बेहतरी अधिक जरूरी
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 भारत में जितने आरोपितों के खिलाफ मुकदमे चलते हैं,
उनमें से औसतन सिर्फ 45 प्रतिशत को ही सजा हो पाती है।
 यानी 55 प्रतिशत अपराधी छूट जाते हैं।
इन 55 प्रतिशत अपराधियों के शिकार हुए लोग कितना डरे -डरे रहते होंगे,इसकी कल्पना की ही जा सकती है।
 सजा का प्रतिशत अमेरिका में 93 तो जापान में 99 है।पाकिस्तान में तो सिर्फ 10 प्रतिशत आरोपितों को ही सजा हो पाती है।
  यानी पाकिस्तान में 90 प्रतिशत लोग डरे -डरे रहते होंगे।
दरअसल अन्य उपायों के साथ- साथ क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को बेहतर बनाने की अधिक व नितांत जरूरत है।
 इसके लिए राज्य स्तर पर बेहतर सरकारें चाहिए।
कानून व्यवस्था राज्य सरकारों के ही जिम्मे होती है।
बेहतर सरकार के लिए बेहतर जन प्रतिनिधि चाहिए।
पर जन प्रतिनिधि चुनने में हमलोगों की प्राथमिकता तो दूसरी ही रहती है।
कल्पना कीजिए कि इस देश में कभी जापान जैसी सरकारें बनने लग जाएं और 99 प्रतिशत आरोपितों को सजा मिलने लगे तो कितने लोग भयभीत रहेंगे ?
जाहिर है कि बहुत ही कम लोग।
जब समाज मेें विभिन्न धर्म व जाति के लोग रहते हैं,ऊंच -नीच की भावनाएं भी मौजूद हैं , तो जाहिर है कि उनमें से कुछ में जातीय व धार्मिक भावनाएं भी होंगी।कहीं तीव्र तो कहीं सामान्य। 
कभी-कभी अपराधों में भी वे भावनाएं काम करती ही होंगी।
पर, यदि सबको इस बात का भय हो जाए कि अपराध करके बचेंगे नहीं तो अपराध के लिए उठे अधिकतर हाथ रुक जाएंगे।
फिर भय के काले बादल छंटने लगेंगे।इसलिए सब समझदार लोग मिलकर यह कोशिश करें कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम बेहतर बने। लोकतंत्र में लोगों की कोशिशों का महत्व भी है। 
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को बेहतर बनाने की कोशिश के लिए अभियान की पहल नसीरूद्दीन जैसी  बड़ी हस्ती तो कर ही सकती है।

रविवार, 23 दिसंबर 2018

रामवृक्ष बेनीपुरी के जन्म दिन @23 दिसंबर@
पर उनके ही शब्दों में सन 1956 की 
राजनीति की एक झलक !
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‘एक मोह फिर टूटा ! 
राज्य सभा के लिए अंत में गंगा शरण खड़े हुए !
भोर में मैंने पूछा,तो नाहीं की थी।
मुझसे वोटर लिस्ट की नकल भी मंगवा ली थी।
और संध्या में यह रचना !
क्या यही राजनीति है ?
मुझसे साफ क्यों नहीं कहा ?
क्यों लुका-चोरी !
किन्तु, बेनीपुरी,क्या यह मोह सदा के लिए टूट चुका 
है तुम्हारा !
क्यों पुराने शराबी की तरह भट्ठी के निकट पहुंचते ही उस ओर टूट पड़ते हो ?
यदि राजनीति करना चाहते हो, तो उसमें अच्छी तरह पड़ो,
अपना गुट बनाओ, चालबाजियां करो, 
झूठ बोलो ,मित्रों को भी धोखे देने से न हिचको,
नहीं तो हाथ -पैर समेट कर बैठो,
जैसा कि तुम्हारी रानी कहा करती हैं !
तुम उसे मूर्ख मानो ,किन्तु दुनिया को वह 
तुमसे अच्छी तरह समझती है !
तुम्हारी राजनीति के त्रिभुज की तीनों भुजाएं 
बिखर पड़ी हैं!
वहां कौन है तुम्हारा ?
ये छोटे -छोटे लोग !
क्या समझें कि तुम कौन हो ?
राजनीति-शक्ति पूजा !
शक्ति -दांवपेंच !
यदि यह नहीं तो वह नहीं !
आज का समय यह है !
और तुम पुराना सपना देख रहे हो ?
@--रामवृक्ष बेनीपुरी लिखित ‘डायरी के पन्ने से’@ 

लालू प्रसाद ने 1995 में राज बल्लभ यादव का 
विधान सभा का टिकट क्यों काटा था ?
किनके दबाव में काटा था ?
किस कारण से ऐसा हुआ था ? 
किन्हीें को याद है ! ?

चैधरी चरण सिंह की याद में
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1.-उन दिनों मैं ‘जनसत्ता’ के लिए बिहार से काम कर रहा था।
पटना के स्टेट गेस्ट हाउस में पूर्व प्रधान मंत्री चरण सिंह से बातचीत करने पहुंच गया।
मुलाकात हो गयी।बातें होने लगीं।
उनकी बातों से मुझे लगा कि इस देश की मूल आर्थिक समस्याओं और उनके समाधान को लेकर अन्य अनेक नेताओं की अपेक्षा चैधरी साहब का आकलन बेहतर व सटीक है।
 मुझे सुनने में अच्छा लग रहा था।वे भी बातचीत से ऊब नहीं रहे थे जबकि समय अधिक होता जा रहा था।
 इस बीच उनके बाॅडी गार्ड या निजी सचिव मुझे वहां से भगाने की कोशिश करने लगा।
पहले धीरे से।बाद में कड़े स्वर में, कहने लगा,उठो जाओ।भागो यहां से।
मैं भला क्या करता ! चैधरी साहब उसे रोक भी नहीं रहे थे।
  वह बेचारा कर्मचारी अपनी ड्यूटी बजा रहा था।
 कोई और जरूरी काम होगा।या फिर उन्हें अधिक बोलने की मनाही होगी।यह सब तो चरण सिंह का कोई करीबी ही बता सकता है।
 पत्रकारीय जीवन मंें मेरा उतना अपमान पहले कभी नहीं हुआ था।
 फिर भी मैं दुःखी नहीं हुआ क्योंकि मुझे लगा कि एक ऐसे नेता  से बातें हुई जो देश की असली समस्या को समझता है।
चैधरी साहब की पत्रिका का नाम भी था-‘असली भारत।’
2.-चरण सिंह को अक्सर लोग जाट नेता कहते या लिखते रहे।उन्हें बहुत बुरा लगता था।
मुझे भी यह अन्यायपूर्ण लगा।
उनकी दोनों बेटियों ने दूसरी जातियों में व्याह किया।मैंने नहीं सुना कि चरण सिंह ने विरोध किया हो।
जबकि अपने देश में अन्तरजातीय विवाहों के विरोध का लंबा इतिहास है-विजयाराजे सिंधिया से लेकर इंदिरा गांधी तक।
जातिवाद के आरोप पर चरण सिंह कहा कहते थे कि इस देश में एक कानून बने।गजटेड नौकरियां सिर्फ उन्हें ही मिलें जिन्होंने अंतरजातीय शादी की हो।
इस पर सब चुप हो जाते थे।
  बिहार के एक बड़े नेता की बेटी ने दूसरी जाति के लड़के से गहरा प्रेम किया था।पर पिता ने वह शादी नहीं होने दी ।उन्हें अपनी जाति का वोट बिगड़ने का भय था।
3.-चरण सिंह की राय थी कि कृषि का विकास हुए बिना इस देश में औद्योगिक विकास नहीं हो सकता।क्योंकि जब तक 70 प्रतिशत लोगों की क्रय शक्ति नहीं बढ़ेगी तब तक करखनिया माल को खरीदेंगे कितने लोग ?
4.-देश की सुरक्षा और एकता को लेकर चरण सिंह के विचार बड़े पक्के थे।
उन्होंने ब्रिटिश इतिहासकार सर जे.आर.सिली की पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद करवा कर छपवाया और वितरित करवाया।
 सिली ने लिखा था कि ब्रिटिशर्स ने भारत को कैसे जीता।
उस इतिहासकार की स्थापना थी कि हमने नहीं जीता,बल्कि खुद भारतीयों ने ही भारत को जीत कर हमारे प्लेट पर रख दिया।
  चरण सिंह ने एक तरह से चेताया था कि यदि इस देश में 
गद्दार मजबूत होंगे तो देश नहीं बचेगा।
आज भी यह देश ऐसे नेताओं को झेल रहा है जो ऐसे -ऐसे बयान देते हैं और काम करते हैं जिससे उन लोगों को मदद मिले जो इस देश को तोड़ने और हथियारों के बल पर राज सत्ता पर कब्जा करने के लिए रात दिन प्रयत्नशील हैं।
 5.-चरण सिंह राजनीतिक खर्चे  के लिए बड़े उद्योगपतियों -व्यापारियों से पैसे नहीं लेते थे।
उन्हें धनी किसान मदद करते थे।
जब वे प्रधान मंत्री बने तो उनके सर्वाधिक करीबी राजनाराण के यहां एक बड़े व्यापारी  पहुंचे।
 कहा कि हमारे अखबार को एक संपादक  चाहिए।
चैधरी साहब कोई नाम बताएं तो हम उसे रख लेंगे।
राज नारायण तो चैधरी की कार्यशैली जानते थे।अपने लहजे में ‘नेता जी’ ने उस व्यापारी को टरका दिया।
मीडिया का चरण सिंह के प्रति रुख का एक नमूना मैंने उन दिनों कहीं पढ़ा  या सुना था।
प्रधान मंत्री चरण सिंह ने एक  बार प्रेस काफ्रेंस बुलाया।हाॅल में पत्रकार पहुंच चुके थे।जब चरण सिंह ने प्रवेश किया तो पत्रकार उनके स्वागत में उठ कर खड़े नहीं हुए जबकि उससे पहले हर प्रधान मंत्री के आने पर पत्रकार उठकर खड़े होते थे।
जब चरण सिंह ने प्रेस का अपने प्रति ऐसा भाव देखा तो उन्होंने कोई बात किए बिना प्रेस कांफ्रेंस समाप्त कर दिया।
@वैसे इस प्रकरण की पुष्टि या अपुष्टि  उस समय के कोई पत्रकार करें तो मुझे खुशी होगी।   
 और अंत में --चैधरी चरण सिंह की जयंती मनाने वाले कितने नेता व राजनीतिक  कार्यकत्र्ता उस दिवंगत नेता की राह पर चलना भी चाहते हैं ?     

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

  यह जानकर निराशा हुई है कि दाना पुर-दिघवारा 
गंगा पुल अभी नहीं बनेगा।
  खबर है कि सेना से सहमति नहीं मिलने के कारण ऐसा हुआ है।
 दाना पुर में सैनिक छावनी है । यह स्वाभाविक ही है कि वहां किसी तरह के बड़े निर्माण से पहले सेना की राय को सबसे अधिक महत्व दिया जाए।
 दाना पुर-दिघवारा पुल के बारे में पिछले दिनों मुख्य मंत्री नीतीश कुमार की घोषणा के बाद उम्मीद बढ़ी थी।
नीतीश कुमार बिना प्रारंभिक तैयारी के कोई घोषणा नहीं करते।
इसलिए यह  लगा था कि दाना पुर-दिघवारा पुल अब बन कर रहेगा।
 दाना पुर -दिघवारा पुल बन जाने से अपने  पुश्तैनी गांव जाना मेरे लिए  बहुत आसान हो जाता।
दाना पुर से सीधे नदी के रास्ते दिघवारा 12 किलोमीटर पर है।
दिघवारा से मेरा गांव करीब साढ़े तीन किलोमीटर है।
इस पुल के बनने से दिघवारा और आसपास का बड़ा  इलाका  भी पटना महा नगर का हिस्सा बन जाता।एक नया नोयडा !
उससे हमारे जिले का विकास तेज होता।अविभाजित सारण जिला मनीआॅर्डर इकोनामी का जिला रहा है।वहां आबादी अधिक व जमीन कम है।
बेरोजगारी की समस्या अपेक्षाकृत अधिक है।
 यदि केंद्र व राज्य सरकार चाहे तो सेना के एतराज को समाप्त करने का कोई उपाय कर सकती हैं।
यानी दानापुर में प्रस्तावित पुल को एक तरफ से घेर दिया जाए,तो शायद सेना राजी हो जाए।या फिर कोई और उपाय।देखें आगे क्या होता है।
हां,इस बीच इस बात की खुशी जरूर है कि महत्वाकांक्षी पटना रिंग रोड के एलायनमेंट पर जल्दी ही अंतिम मुहर लग जाएगी।
उस एलायनमेंट के लिए गंगा नदी  पर जेपी सेतु के समानांतर एक पुल बनेगा।

आज के दैनिक जागरण -पटना-में अरविंद शर्मा की एक बहुत अच्छी रपट है।
यह आंकड़ा मुझे  नहीं मालूम था।
कहां कितना स्थानीय कोटा
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तमिल नाडु--90 प्रतिशत 
आंध्र प्रदेश-90 प्रतिशत
तेलांगना-90 प्रतिशत
झारखंड- 85 प्रतिशत
पश्चिम बंगाल--80 प्रतिशत
मध्य प्रदेश-75 प्रतिशत
छत्तीस गढ़-75 प्रतिशत
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बिहार--कोई स्थानीय कोटा नहीं।
अरविंद ने यह भी लिखा है कि बिहार लोक सेवा आयोग 
की हाल की अध्यापक भर्ती परीक्षा में प्रतिभा को तरजीह दी गयी।कई विषयों में बिहार के अभ्यर्थियों की तुलना में दूसरे प्रदेश के लोगों ने अधिक नौकरियां ले लीं।
अंग्रेजी विषय में तो 80 प्रतिशत प्रतियोगी  केरल के सफल हुए।
  आदि आदि ............।’
आजादी के तत्काल बाद बाहर से अनेक नामी विद्वान प्राध्यापकों को बुलाकर पटना विश्व विद्यालय में तैनात किया गया था।
आज भी बिहार की प्रतिभाओं को बाहर जहां
भी मौका मिलता है, वे अपना लोहा मनवा ही रहे हैं।
पर जिन क्षेत्रों में बिहार में प्रतिभा की कमी है,वहां बाहर से भी लोग आएं तो उसमें क्या हर्ज है ?
हाल में बिहार के एक विश्व विद्यालय के प्रो वी. सी. ने फाइल पर दर्ज अपने नोट में गवर्नर,सचिवालय और रजिस्ट्रार तक की स्पेलिंग गलत लिख दी।
  जब प्रो.वी.सी. साहब का यह हाल है तो काॅलेजों के अधिकतर प्राचार्यों और शिक्षकों का क्या होगा ?हालांकि कुछ योग्य भी हैं।
इसी हाल का नतीजा है कि अस्सी प्रतिशत केरल से आए।
 कुछ साल पहले बिहार की निचली अदालतों के लिए बहाल न्यायिक पदाधिकारियों की मैंने सूची देखी थी।लगभग 35- 40 प्रतिशत उत्तर प्रदेश के मूल निवासी थे।ऐसा इसलिए था क्योंकि बिहार के अधिकतर लाॅ कालेजों में पढ़ाई ही नहीं होती।उत्तर प्रदेश में स्थिति बेहतर है।कुछ अन्य मामलों में बिहार के उम्मीदवार बेहतर हैं जिन्हें यू.पी.या अन्य राज्यों को  स्वीकार करना चाहिए।
  जहां व्यापमं घोटाला हो रहा हो, वहां क्या हाल होगा, मुख्य मंत्री कमलनाथ जी जरा पहले पता लगा लें।
वहां भी बाहर से प्रतिभाएं लाने की जरूरत हो सकती है।
उस जरूरत को समझिए।उससे आपके ही लोगों का भला
होगा। 
 राजनीति बाद में करते रहिएगा।
 बिहार की शिक्षा का जो हाल है,वह सब जानते हैं।
यहां तो बाहरी -भीतरी का हंगामा करने के बदले पहले 
योग्य शिक्षकों को कहीं से भी लाकर महत्वपूर्ण पदों पर तैनात करने की जरूरत है।
बिहार के अपने योग्य शिक्षकों को महत्वपूर्ण जगहों पर लगाइए।अयोग्य को गैर शैक्षणिक कामों में लगाइए।
इस तरह अगली पीढियों को बर्बाद होने से बचाइए।
 शिक्षा अच्छी होगी तभी अन्य क्षेत्रों में काम करने के लिए योग्य व्यक्ति उपलब्ध होंगे।
   


गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

पटना के पास गंगा नदी पर गांधी सेतु 1982 से  स्थित है।
यह पुल पटना के पूर्वी हिस्से में है।
उस सेतु से बिलकुल सटे यानी कुछ ही मीटर की दूरी पर एक और पुल बनने जा रहा है।
आज सुना कि प्रस्तावित पटना रिंग रोड़ से जुड़ा 
प्रस्तावित गंगा पुल जेपी सेतु के ठीक बगल में बनने जा रहा है।
नया जेपी सेतु हाल में चालू हुआ है।यह पश्चिमी पटना में है।
यानी, कुछ वर्षों के बाद पटना को उत्तर बिहार से जोड़ने लिए कुल चार पुल गंगा नदी पर हो जाएंगे।दो पहले से और दो नए।
 पर जानकारों के अनुसार इसमें भारी गड़बड़ी हो रही है।
दो -दो पुल इतने पास -पास ? !
पास- पास  पुल सुरक्षा की दृष्टि से कत्तई ठीक नहीं।
यदि  चारों पुलों की आपस में दूरी  अधिक होती तो अधिक क्षेत्र भी विकसित होते।सड़क और पुल तो विकास के इंजन हैं।
 पर, पता नहीं, नीति निर्धारकों को यह बात क्यों समझ में नहीं आई !

 बिहार में कहा जाता है कि ‘दूध का जला मट्ठा फूंक कर पीता है।’
लगता है कि यह कहावत न तो नरेंद्र मोदी ने सुनी है और न ही अमित शाह ने।शायद गुजरात में ऐसा नहीं कहा जाता होगा !
संभवतः इसलिए भाजपा नेतृत्व इस बार 2004 दुहराने पर आमादा लगता है।
 1999 में राम विलास पासवान राजग में थे।
उस साल के चुनाव में राजग को अविभाजित बिहार की  54 में से 41 सीटें मिली थीं।
 बाद में राम विलास पासवान राजग से निकल गए या निकल जाने के लिए बाध्य कर दिए गए।मलाईदार मंत्रालय छीन कर।
2004 के लोक सभा चुनाव में पासवान लालू के साथ मिल कर चुनाव लड़े।
लालू गठबंधन को 2004 में बिहार की 40 सीटों में से 29 सीटें मिलीं।
 जबकि पासवान सहित राजग को 1999 में अविभाजित बिहार में 54 में से 41 सीटें मिली थीं।
 यदि 1999 के अनुपात में ही राजग को सीटें मिली होती तो 
2004 में भी अटल जी की सरकार केंद्र में बन गयी होती।
  लगता है कि 2004 में दूध का जला 2019 में मट्ठा फूंक कर पीने की जरूरत भाजपा महसूस नहीं कर रही है।भाजपा ने पहले कुशवाहा की परवाह नहीं की और अब पासवान की भी चिंता नहीं करती नजर आ रही है।
   क्या इन दलों के न रहने के कारण होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए भाजपा के पास कोई ब्रह्मास्त्र तैयार है ?
राम मंदिर ब्रह्मास्त्र या ओबीसी वर्गीकरण 
का दांव ? पता नहीं ! 

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

ड्रायवर रखने में सावधानी बरतें नेतागण
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पूर्व रेल मंत्री सी.के.जाफर शरीफ के बारे मंे यह कहानी मैंने 
तभी सुनी थी।
पर, मैंने उस पर पूरा विश्वास नहीं किया था।
पर, जब कर्नाटका के पत्रकार मनोहर यडवट्टि ने पाक्षिक पत्रिका ‘यथावत’ के ताजा अंक में वही बात लिख दी तो मुझे लग गया कि अन्य लोगों को भी यह कहानी बतानी चाहिए ।ताकि, कम से कम बड़े नेतागण व महत्वपूर्ण लोग  अपना ड्रायवर रखने में सावधानी बरतें।
 हाल में जाफर शरीफ के  निधन के बाद मनोहर यडवट्टि ने उस किस्से को कुछ इस तरह लिपिबद्ध किया,
  ‘गरीब परिवार में जन्मे और अल्प शिक्षित जाफर शरीफ जवानी के दिनों में कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के नेता एस.निजलिंगप्पा के संपर्क में आए।उनके निजी सहायक और ड्रायवर के रूप में अपने कैरियर की शुरूआत की।’
@ यह बात उस समय की है जब 
निजलिंगप्पा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे।@
‘इस कारण जाफर शरीफ को बड़े नेताओं के बीच होने वाली बातचीत और राजनीतिक योजनाओं आदि के बारे में भी जानकारी रहती थी।
जब कांग्रेस में इंदिरा गांधी के नेतृत्व को लेकर विवाद की शुरूआत हुई ,उस समय निजलिंगप्पा इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गए।
एक दिन कार में कहीं जाते वक्त निजलिंगप्पा अपने कुछ अन्य सहयोगियों के साथ इंदिरा गांधी को सबक सिखाने की योजना पर बातचीत कर रहे थे।
इस बातचीत को जाफर शरीफ ने ध्यान से सुना और उसके  तुरंत बाद वे राजधानी दिल्ली के लिए रवाना हो गए।
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को सारी बातें विस्तार से बतार्इं।
उससे इंदिरा गांधी को अपने खिलाफ बनाई जा रही सारी योजनाओं की जानकारी मिल गई।
हालांकि इसके लिए जाफर शरीफ को विश्वासघाती तक की संज्ञा दी गयी।
लेकिन इंदिरा गांधी उनकी निष्ठा से काफी प्रभावित हुईं।1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया।
1971 में जब संसदीय चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी ने जाफर शरीफ को कनक पुरा संसदीय क्षेत्र से पार्टी का टिकट दिया।
वह जीते भी।
इंदिरा गांधी ने उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया।
इंदिरा गांधी के रहते उनका कद हर समय ऊंचा बना रहा।’ 







   




लोक सभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कल सदन में हंगामा कर रहे सांसदों को फटकारा और पूछा कि ‘क्या हम स्कूल के बच्चों से भी गए -गुजरे हैं ?’
  ऐसा कह कर स्पीकर ने स्कूली बच्चों और उनके शिक्षकों का अपमान किया है।
स्कूली बच्चे तो भोले और नादान होते हैं।ऐसा भोलापन उन सांसदों में कहां ?
  दूसरी ओर टीचर जब चाहते हैं,बच्चे शांत भी हो जाते हैं।
आप महोदया तो चाहती भी नहीं हैं।सिर्फ लोगों की सहानुभूति पाने के लिए कुछ ऐसे वाक्यों का यदाकदा उच्चारण कर देती हैं ।हाल के दशकों के अन्य स्पीकर भी यही काम करते रहे हैं।यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य है।
मेरी सहानुभति तो ऐसे स्पीकरों के प्रति कत्तई नहीं रही है।क्योंकि अनुशासन कायम करने वाले पहले के स्पीकरों को देखा- जाना है।
आपके टेबल पर जो कार्य संचालन नियमावली रखी रहती है,उसे मैंने भी थोड़ा- बहुत पढ़ा है।आपके पास इतने अधिक अधिकार हैं कि कोई सांसद आपकी अनुमति के बिना चूं तक न करे।
राजनारायण जैसे अदमनीय जन प्रतिनिधि  अपने संसदीय जीवन में 9 बार मार्शल आउट हो चुके थे।आपके पास भी हट्ठे -कट्ठे मार्शल व संतरी हैें।जरूरत पड़े तो सेना बुला लीजिए जिस तरह बाढ़ और भूकम्प के समय सेना बुलाई जाती है।लोकतंत्र को बाढ़ -भूकम्प जैसा ही खतरा मैं देख रहा हूं।
  हां, स्पीकर महोदया, सदन में सदाचरण लाने के लिए  आप
प्रधान मंत्री से सहमति हासिल  कीजिए।यदि वे सहमत न हों तो आप इस्तीफा दे दीजिए और देश को यह बताइए कि ‘मैं सदन यानी लोकतंत्र की गरिमा गिराने में सहायक नहीं बन सकती।
 मैं इसे चंडूखाना बनने नहीं दूंगी।यह कोई टी.वी.चैनल का डीबेट -शो नहीं है।’आपका नाम इतिहास में दर्ज हो जाएगा।
पर उसके लिए पहले अरूण जेटली और सुषमा स्वराज को सदन में खड़ा करा कर उनसे माफी मंगवानी पड़ेगी।इन दोनों ने उस समय अपने हंगामे को सही ठहराया था जब वे प्रतिपक्ष में थे। 
  एक बात और कह दूं।
चूंकि किसी एक राज्य के कुछ सांसदों ने संसद की गरिमा
को गिराने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है,वह बिहार ही है।उसका विवरण मैं बाद में लिखूंगा।पर, अभी प्रायश्चित के रूप में बिहार से ही कोई बेहतर सलाह जाए तो अच्छा माना जाएगा।इसीलिए मैंने यह सब लिखा।



यदि बिहार-उत्तर प्रदेश के लोगों से शिवसेना-मनसे को 
कोई शिकायत हो तो बात समझ में आती है।
क्योंकि उनकी कोई अखिल भारतीय दृष्टि नहीं है।
 पर किसी कांग्रेसी को तो शिकायत नहीं होनी चाहिए।
  क्योंकि बिहार को पिछड़ा बनाए रखने में उनकी ही केंद्र सरकारों की  ही तो मुख्य भूमिका  रही है।
  कल्पना कीजिए कि अंग्रेजों के जमाने में रेल भाड़ा समानीकरण नियम रहा होता तो क्या अविभाजित बिहार में टाटा नगर बस पाता ?
चूंकि खनिज पदार्थों को बिहार से समुद्र तट तक ढो कर ले जाना जमशेद जी नौसरवान जी टाटा के लिए आसान हो जाता।
क्योंकि तब समुद्र तट तक खनिज पहुंचाने में रेल भाड़ा उतना ही लगता जितना धनबाद से जमशेद पुर ले जाने में लगता।
  पर अंग्रेजों ने यह सुविधा नहीं दी थी।
 याद रहे कि निर्यात को ध्यान में रखते हुए अधिक उद्योग समुद्र किनारे वाले राज्यों में लगे।
  आजादी के बाद केंद्र सरकार ने रेल भाड़ा समानीकरण नियम लागू करके बिहार का विकास मद्धिम कर दिया।बिहार के खनिज पर दूसरे राज्य फले- फूले।बिहार की  क्षति की पूत्र्ति नहीं दी गयी।यहां तक कि खनिज राॅयल्टी का रेट भी कम रखा गया।
  याद रहे कि उस समय पूरे देश में जितना खनिज पाया जाता था,उसका 48 प्रतिशत बिहार मेें पाया जाता था।
 लंबे संघर्ष के बाद रेल भाड़ा समानीकरण नब्बे के दशक में ही समाप्त हो सका।
अर्थशास्त्रियों के अनुसार तब तक अविभाजित बिहार को 10 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका था।
  ऐसे में बिहार के लोग रोजी -रोटी के लिए राज्य के बाहर जाएंगे ही।
वैसे भी इस आने -जाने में कोई नियम बाधक है नहीं।
बिहार के लोगों का यदि देश के अन्य राज्यों के कांग्रेसी सरकारें स्वागत करंेगी तो वे रेल भाड़ा समानीकरण लागू करने की गलती का प्रायश्चित मात्र ही करेगी।
कमलनाथ जी ने यदि यह रेल भाड़ा समानीकरण का यह इतिहास न पढ़ा हो तो अब से भी पढ़ लें ।वैसे बिहार के प्रति के सौतेलेपन के अन्य उदाहरण भी हैं। 

  तेलांगना के मुख्य मंत्री के.चंद्रशेखर राव ने  अपने पुत्र रामाराव को अपनी पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया है।
 इस देश में मुख्यतः कम्युनिस्ट पार्टियांे और भाजपा को छोड़कर लगभग सभी दलों के सुप्रीमो  अपने वंशजों व परिजनों को अपना उत्तराधिकारी बनाते जा रहे हैं।
अत्यंत थोड़े दल ही अपवाद रहे गए हैं।
इस बार के राज्य विधान सभा चुनाव में 
भी अनेक नेताओं के वंशज टिकट पा गए।कई जीते भी।
कई भाजपा नेताओं के वंशज भी टिकट पाए,पर अभी ऐसी स्थिति नहीं बनी है कि भाजपा का कोई नेता भाजपा को अपने बाद या जीवनकाल में ही अपने पुत्र के हवाले कर दे।कम्युनिस्ट पाटियों में तो इसका सवाल ही नहीं उठता।
  यानी देश की राजनीति में वंशवाद-परिवारवाद-जातिवाद  की होड़ मची हुई है।
 दस-बीस साल तक यदि यह जारी रहा तो हमारे देश में फिर नए ढंग के रजवाड़ों का तानाबाना तैयार हो जाएगा जिस तरह आजादी से पहले 565 रजवाड़े राज कर रहे थे।
यानी वह डायनेस्टिक डेमोक्रेसी होगी।
यदि अधिकतर छोटे -बड़े नेताओं के वंशजों को ही उनकी सीटों से चुनाव लड़ना है तो फिर राजनीतिक कार्यकत्र्ता गण किस उम्मीद में राजनीति में बने रहेंगे या आएंगे ?
 राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं की प्रजाति जब लुप्त हो जाएगी तो सवाल यह भी है कि राजनीतिक कर्म करेगा कौन ?
 लगता है कि  उसका उपाय भी इस देश के अधिकतर नेताओं ने खोज लिया है।
एम.पी.-एम.एल.ए.फंड के ठेकेदार ही राजनीतिक कार्यत्र्ता बन गए हैं और बन रहे हंै।उनमें से अधिकतर बाहुबली होते हैं या रखते हैं।
  यदि फंड की राशि कम पड़ रही होगी तो उसे बढ़ा दिया जाएगा,ऐसे भी संकेत  हंै।
 एक संसदीय समिति ने सांसद फंड की राशि 5 करोड़ रुपए से बढ़ाकर सालाना 25 करोड़ रुपए कर देने की सिफारिश कर रखी है।
  पर मोदी सरकार ने अभी तक इसे नहीं माना है।पर कब तक टालेंगे ?
पर यदि अगली बार किसी मिलीजुली सरकार की सदारत करनी पड़ेगी तो अटल जी और मनमोहन जी की तरह फंड
उन्हें भी बढ़ाना ही पड़ेगा।
     अगली सरकार चाहे जिस गठबंधन  की बने, कुछ लोग उम्मीद कर रहे हैं कि वह मिली -जुली सरकार ही होगी।मिलीजुली सरकारों से फंड बढ़वाना आसान होता है।
  कल्पना कीजिए कि पांच करोड़ बढ़कर कम से कम 10 करोड़ रुपए सालाना हो गया तो कार्यकत्र्ताओं की भला कहां कमी रहेगी ?
 उस पैसों में से तो सुरक्षा के लिए गोली-बंदूक के लिए पैसे भी निकल आएंगे।दूसरे दलों के गुंडों से अपनी रक्षा के नाम पर !
 याद रहे कि हर देश के फौजी मंत्रालय का नाम रक्षा मंत्रालय ही तो होता है।
 एक नेता कहा भी करते  हैं कि हम किसी बाघ के खिलाफ किसी बकरी को तो चुनाव में खड़ा नहीं कर सकते !
जब बाघ सड़कों पर निकलेगा तो उसके नख -दंत भी उसके साथ ही होंगे।

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

रिजर्व बैंक के कुछ गवर्नरों के संक्षिप्त कार्यकाल
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गवर्नर तीन साल के लिए बहाल होते हैं।
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पर,
जो 1957 में बने ,वे 45 दिन रहे।
जो 1970 में बने, वे 42 दिन रहेे।
जो 1975 में बने ,वे 92 दिन रहे।
1975 में जो दूसरे बने वे 621 दिन रहे।
जो 1977 में बने वे 211 दिन रहे।
जो 1982 में बने ,वे 851 दिन रहे।
जो 1985 में बने,वे 20 दिन रहे।
जो 1990 में बने वे 730 दिन रहे।
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मेरे जनरल नाॅलेज की वृद्धि के लिए  आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ यह बता सकेंगे कि ये लोग अपना कार्यकाल पूरा 
क्यों नहीं कर सके थे ?